एक ‘अपाहिज़’ दर्द

एक समीचीन (यथार्थ) अभिव्यक्ति

★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

उस खूँटी को देख!
जो शिथिल-सहमी-सकुची-संत्रस्त;
क्रन्दन करती भार ढोती;
फफकती-सिसकती;
अपनी हथेलियों की लकीरों को बाँचती;
आशंका-सिन्धु में डूब और उतरा रही है।
विषाक्त होती उसकी काया-छाया से
उसका मौन करता प्रश्न
केवल ‘प्रश्न’ बनकर रह जाता है।
वह स्वयं को दुबकाने का
असहज-असफल प्रयत्न करती आ रही है
वह ‘हाशिये’ पर गुम-सी दिखती है।
वह तानती आ रही है,
अपने अंग-प्रत्यंगों को
अपनी ओर;
मानो कलुषित काया
उसकी मथित मर्यादा के प्रति उदासीन हो
व्यामोह के मरुस्थल में,
एक ‘अबूझ’ तलाश में
मृगमरीचिका-सदृश भटक रही हो।
उस भटकाव के दर्शन के साथ
मानो उसके विस्फारित नेत्र
संवाद करने के प्रति जिज्ञासु हों।
उसकी बेबसी-लाचारगी की पराकाष्ठा के-
मौन स्वर यों ही नहीं सुनायी देते।
याद कर!
‘आज’ तूने उस खूँटी पर
अपनी ‘इज़्ज़त’ जो टाँग रखी है।
‘कल’ तूने ही उसी खूँटी पर
अपने ‘चरित्र की छाया’ टाँग रखी थी,
जिसका साक्षी है, वह ‘किंकर्त्तव्यविमूढ़’ खूँटी।
वह एक अनकहा एहसास जी रही है,
‘बिनब्याही’ माँ की तरह।
उसे भय है,
क्योंकि ‘कल’ तू उस पर
अपना ‘समूचा चरित्र’ भी
लटका सकता है।
उसकी चिन्तन-मननपरिधि में
संक्रमण का जो साया
घूम रहा है,
वह ‘एच० आइ० ह्वी०’, ‘ कोविड’, ‘ब्लैक फंगस’
और ‘येलो फंगस’ से भी भयावह है।
वह गड़ती जा रही है;
गड़ती जा रही है!
सतीत्व की परीक्षा करनेवाले राम से पूछ!
कहाँ है जानकी?

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २५ मई, २०२१ ईसवी।)