न्याय कहाँ मिलता यहाँ?

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

एक–
न्याय कहाँ मिलता यहाँ, बड़े-बड़ों का खेल।
एड़ी फटती हर जगह, पापी-पापी-मेल।।
दो–
लज्जा उससे दूर है, लज्जा को भी लाज।
सीरत-सूरत इस तरह, कोढ़ी को हो खाज।।
तीन–
अपना किसको हम कहें, किस पर हो विश्वास?
ऐसे में कैसे भला, हो ग़ैरों से आस?
चार–
रिसते आँसू पूछते, छलते क्यों हो देश?
पापभरा गठरी लिये, धरे फ़क़ीरी वेश।।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २० जून, २०२२ ईसवी।)