आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय के नाछपल भोजपुरी उपनियास से इ लीहल गइल बा; सुनीँ सभे–

       "का हो डोलावन काकी! काहेँ हऊ लुगवा से मुँहवाँ काहेँ क लुकवाव तारू? तनी सुन! खाली एक खाँड़ा बाति कहब। चँग लुटे क होखला त लइकवन क बीचवा मे जाइ क जोर मारे लाग लू; कमरिया मे सड़िया क कौनवा खोँसि क चँगिया क लूटे-खातिर ओकरा पाछे-पाछे भागे लाग लू। आ बोलाव तानी, त नवकी कनिया लेखा लजा तारू। आच्छा जा; पगहा तुराई क भाग मत। तहरा क लखेदब ना।"
    "आ ए फूलमतिया! तनी हेन सुन रे!"
    '' ना सुनब; तू हमरा क डोलावन काकी काहेँ कहल हा? 'डोलावन' तक त चलत रहित, बाकिर 'काकी' ना।"
      ''आछा, कान पकड़ तानी; अब आगे से ना कहब। आच्छा बोल, तोरा क का कहल करीँ?''

"ई हमरा से का पूछ तार; तहरा एतनो बुद्धी नइखे?"
"ते हमरा से काहेँ खिसिमाइल रह ले?''
"आ भे, तू त हमरा क बेकार कइ देह ल।"
"हम तोरा क बेकार कइ दिहनी? उ कइसे रे।"
"आ कि जबे देख तबे– 'ए फूलमतिया! ए फूलमतिया' कइले रह तार। लोगवा आन्हर नइखे आ ना गूँग बा; सबे जानल कि तू तिरछोल हउव। तहरा याद आव ता? एहितरी बेचारी परबतिया क– 'ए परबतिया-ए परबतिया!' बोलाइ-बोलाइ क ओकरा क कवनो गतर के ना छोड़ ल। अब जा हम ना आइब।"
"ना अइबू, त जा, उफर पड़! चुल्ही मे जा क झोकरा। तू आपना क सोनपरी आ हीरपरी जाने लू न, त जानत रह। अरे! तहरा अइसन हमरा पासे एक खाँची परबतिया बाड़िन स; बुझाइल?"

“भले एक खाँची होखिहेँ स, बाकिर ठेकल एकहू ना होखी।”
“तू त हुचहुचवा क बच्चा हऊ। तहरा क का बुझाई। रेसमिया, अजदिया, रमपतिया, फूलगेनिया, बुधनी, रमवतिया, कुसुमिया, चनदरवतिया आ अउरू ढेर गोड़ी बाड़िन स।”
“हूँह! ढेर गोड़ी बाड़िन स। त ओनिये काहेँ नइख भहरात? जा होनिए मुँह मराओ; हेने काहेँ ढहल आव तार? जब देख तबे”ए फूलमतिया-ए फूलमतिया!” क माला काहेँ जापत रह ता र? तहार हम सब लछन बूझेनी। आछा, बताव काहेँ के बोलावत रहल हा?”

“अरे तेहीँ हमार असली फूलमतिया हवे रे। खाली तोरा के जरावे खातिर हम सोगहग झूठ बोलले रहनी हाँ। आच्छा, इ सब छोड़; तनी अउरू कगरी आउ। अब काम के बात कइल जाउ।”
“त कर। के तहार मुँह पकड़ले बा।”
“ते बाड़ा सूनर लाग तारे।”
” बे, तू खाली एही तरे बोल ल। सही मे हम सूनर लाग तानी हो हो?”
“सूनरे! अरे सुनरे ना; ते त मेनको से आगे बढ़ि क बाड़े। जब ते चलले नू, त जान तारे, हमार हियरा झूला-लेखा झूले लागे ला आ हमरा क एगो जिला-हिलावन गीत गावे क मन करे ला?”
“आछा त, तहरा मे इहो लच्छन बा। त ऊ गीतिया क का नावँ हवे; तनी सुनइब?”
“गोरी चलो न हंस की चाल जमाना दुसमन है।”
“बाह! सुनि क माजा आ गइल।”
“अरे तनी फरका रहु, ना त हमार पेटवा फाटि जाइ। इहे कहाला, गीत क असरिया। एने हम सुनइने, आ तेँ हमरा कगरी आवत जा ता रे।”
“आच्छा इ बताव! हमरा क काहेँ के बोलवल हा?”
“एगो खेला खेले क बा।”
“कऊन खेला हो?”

 "अरे उहे– पानवाँ-फूलवा-ढेँढ़िया पुचुक।"
 "आ भे।''
    (बाकिर फेर कबो)

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १ मई, २०२५ ईसवी।)