क्या सुवेन्दु अधिकारी मुख्यमंत्री होंगे?

अगर भाजपा पश्चिम बंगाल चुनाव जीतती है, तो भाजपा का मुख्यमंत्री कौन होगा?

मेरी नज़र में इस सवाल के दो पहलू हैं। मान लिया जाए कि भाजपा जीत गई है तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा। दूसरा, क्या भाजपा बंगाल में बिना किसी मुख्यमंत्री उम्मीदवार के चुनाव जीत सकती है। जैसा वो त्रिपुरा में करने में कामयाब हो पाई।

क्या आप समझते हैं, इस मामले में शुभेन्दु, मुकुल रॉय से ज़्यादा प्रभावशाली हैं? और क्या आप मानते हैं कि इन दोनों में से एक को भी अगर मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बताकर चुनाव में उतरा गया तो भाजपा को चुनाव में फ़ायदा होगा?

इन दोनों में से एक का भी वो जनाधार नहीं है कि वो अपने दम पर चुनाव जीत सकें। शुभेन्दु भले ही एक बाहुबली और पैसे के दम पर चलने वाले राजनैतिक व्यक्ति ज़रूर हैं, पर उनका कोई दोस्त नहीं है और ना ही वो व्यक्ति हैं जिनको देखकर लोग उनके साथ चल दें। बहुत से ऐसे लोग भी हैं, जो इनकी वजह से परेशान होकर भाजपा में आए थे।

आपको शायद याद हो कि प्रणव मुखर्जी ने कहा था – मैं कांग्रेस के साथ मतविरोध होने के बावजूद कभी ख़ुद कुछ नहीं कर सकता था, क्योंकि मेरा कोई जनाधार नहीं था, जो कि ममता कर सकी, मैं कभी नहीं कर सकता था। उन्होंने ख़ुद माना कि मशहूर होना और जनाधार होने में फ़र्क़ होता है।

बंगाल में शुभेन्दु का दल बदल का कोई महत्वपूर्ण प्रभाव जनता के मन में नहीं है। आप हिन्दी के चैनल में जो देखते हैं, उसका कोई प्रभाव बंगाल की जनता पर नहीं है। अगर बंगाल के चैनल देखें तो ख़ुद भी समझ सकते हैं।

ममता के वोट बैंक में औसतन 30% मुसलमान वोटर हैं। बिहार चुनाव के परिणाम के बाद ओवैसी का बंगाल में कुछ नहीं होने वाला, ये पक्का हो गया था। अगर कुछ कर भी लेते, तो उसके काउंटर वजन के तौर पर अब्बास सिद्दीक़ी का इस्तेमाल होगा। बाक़ी बचे वोटबैंक को क्षेत्रीय बनाम बाहरी के तौर पर ममता इकट्ठा रखना चाहेगी। भाजपा अगर परोक्ष रूप से वाम दल का इस्तेमाल करती तो ममता के वोट कट सकते थे या बट सकते थे।

बंगाल में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो अगर एक अच्छा नेतृत्व पा लें तो वाम दल को वोट देना चाहेंगे, भाजपा को नहीं। वैसे ही हालात देखते हुए प्रादेशिक तौर पर ममता को मात देना कोई आसान काम नहीं था।
मगर अब कुछ और रोमांचक तो उम्मीद करना बनता ही है। ममता के वोट ना काट पाने की परिस्थिति में भाजपा पर दबाव होगा, एक क़द्दावर मुख्यमंत्री का चेहरा तलाशना। और अगर वो अब भी ऐसा नहीं करती तो देर हो जाएगी।

टीएमसी पहले ही इसे ममता बनाम मोदी का चुनाव बता रही है, ताकि लोगों में सन्देश जाए की प्रादेशिक स्तर पर और कोई है ही नहीं, जो टक्कर दे सके। जो कि बंगाल की जनता के दिमाग़ में पहले से ही है। ऐसे में बंगाल में भी मोदी लहर पर निर्भर करके या पैदा करके चुनाव निकाल जाए, ऐसा थोड़ा कठिन है। यही त्रिपुरा से अलग है।

अगर जीत जाती है तो, जीतने के बाद तो भाजपा तय कर ही सकती है कि मुख्यमंत्री किसे बनाएगी। और वो किसी को भी बना ले, क्या फ़र्क़ पड़ता है। मगर उससे भी ज़्यादा शायद ये तय करना ज़रूरी हो सकता है, कि विपक्षी दल होने के नाते, कितने बड़े विपक्ष के रूप में सामने आ पाते हैं, कहाँ से ज़्यादा सीट पक्का कर पाते हैं और किसे नेता विपक्ष बनाए, जो 2026 के चुनाव में भाजपा को जीत दिला सके, जो दूसरे दल, नेता और कार्यकर्ताओं को अपने साथ जोड़ सके। तब तक मुख्यमंत्री का सही उम्मीदवार भी मिल जाएगा। कम से कम दिलीप घोष से निजात पा सकते हैं, जो बंगाल के पृष्ठभूमि में भाजपा को सम्मानजनक परिस्थिति में नहीं ले जा सकते। बंगाल के ज़्यादातर लोगों को जिन बातों की वजह से भाजपा से परहेज़ हो सकता है, ये उन्हीं बातों को हवा देते हैं। इससे एक निश्चित तबका ही उनके साथ आ सकते थे और वे आ चुके।

आज अगर लोकसभा का चुनाव हो तो भाजपा बंगाल में पहले से भी कहीं बेहतर परिणाम ला सकती है। मगर विधानसभा एक अलग मुद्दा है और अगर शाह साहब कोई चौंकाने वाला ज़बरदस्त चाल सोचकर बैठे हैं तो शायद साल ख़त्म होने तक इंतज़ार करना होगा।
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(लेखक परिचय:
शाश्वत तिवारी स्वतंत्र पत्रकार हैं। वह राजनीति, समाज और संस्कृति पर विश्लेषणात्मक लेखन करते हैं। सत्ता, जनमत और नेतृत्व के बीच के बदलते समीकरणों को विश्लेषण की गहराई से देखने के लिए जाने जाते हैं।)