नमन उस संघर्ष को

“लकीर की फ़कीर हूँ मैं, उसका कोई गम नहीं। नहीं धन तो क्या हुआ, इज्ज़त तो मेरी कम नहीं!”

यह पंक्तियां हैं सिंधुताई की, जो जीता- जागता प्रमाण हैं जीवन की मुश्किलों से लड़कर हजारों जिंदगी संवारने का।माई के नाम से मशहूर सिंधुताई राष्ट्रपति द्वारा सम्मान पा चुकी हैं लेकिन माई के रूप में पहचान यूं ही नहीं बन गयी उनकी, जिंदगी की मुश्किलों से लड़कर खुद को संभाला, साथ ही अनाथों को सहारा दिया।जन्म के बाद परिवार ने सिंधुताई को इंसान से पहले ‘एक लड़की’ के रूप में देखा, जिसके भाग्य में दर-दर भटकना लिखा था। जिसके परिवार तक ने ‘उपेक्षा’ की, उसने वह कर दिखाया जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। वक्त को कौन जानता है भला, कि जिस लड़की को अनचाही-अभागी मान कर ‘चिंदी’ बुलाया जाएगा, वह अपने संकल्प से एक दिन हजारों अनाथ बच्चों की ममतामयी आंचल बन जाएगी।महाराष्ट्र के वर्धा जिले में ‘पिपरी मेघे’ गांव है, जहां सिंधुताई सपकाल का जन्म हुआ। उनके पिता जानवरों को चराने का काम करते थे। क्योंकि सिंधुताई बेटा नहीं, बेटी थी, इसलिए परिवारवाले उन्हें नापसंद करते और उन्हें ‘चिंदी’ (कपड़े का फटा टुकड़ा) कह कर बुलाते थे, लेकिन उनके पिता अपनी बेटी को जीवन में आगे बढ़ते देखना चाहते थे, इसलिए सिंधुताई की माँ के खिलाफ जाकर वे उन्हें स्कूल पढ़ने भेजते थे।

माँ का विरोध और घर की आर्थिक परिस्थितियों की वजह से सिंधुताई की शिक्षा में बाधाएं आती रहीं। दस साल की सिंधुताई जब चौथी कक्षा में पढ़ रही थीं, तब उनकी शादी तीस साल के श्रीहरि से हो गई। महज बीस साल की उम्र में वे तीन बच्चों की माँ बन गई थीं।

इतने भारों तल दबे होने के बावजूद उनके अंदर की बहादुरी जरा भी कम नहीं हुई। उन्होंने एक स्थानीय सशक्त आदमी के खिलाफ एक सफल आंदोलन चलाया। वो आदमी ग्रामीणों से गाय के सूखे गोबर इकट्ठा करवाता था और गांवों को कुछ भी न देकर वन विभाग को सब बेच डालता था। इस आंदोलन में सिंधुताई ने उस इलाके के जिला कलेक्टर को अपने गांव में बुलाया। कलेक्टर ने पाया कि वहां सच में गड़बड़ चल रही है। उन्होंने एक आदेश पारित किया और इस घोटाले को रोकने के लिए सख्त कदम उठाए। ये सब होता देख वो बाहुबाली आदमी तुनक गया। एक गरीब महिला के हाथों हुए इस अपमान से वो मरे जा रहा था। उस आदमी ने नीचता की सारी हदें पारकर सिंधुताई के पति को धमकाया, उसे यह भरोसा दिलाया कि पेट में पल रहा बच्चा उसका है। तब सिंधु के पति ने उनके पेट में लात मारी और वह बेहोश हो गईं तो उन्हें खींचकर गायों के तबेले में डाल दिया। उस वक्त सिंंधु 9 महीने की गर्भवती थीं।

उस रात अपने घर के बाहर एक गाय आश्रय में उन्होंने बेहोशी में ही एक बच्ची को जन्म दिया। सारी गायें उन्हें घेरे खड़ी थीं, तब एक गाय उनकी मां बन रक्षा कर रही थी, वह आवाज देकर उठाने की कोशिश कर रही थी। वह जब होश में आयीं तो देखा कि बच्ची का जन्म हो चुका था और कोई उनके पास नहीं था। उन्होनें पत्थर को नाल पे मार – मार अपनी बच्ची की गर्भनाल काटी। सब कुछ खुद से किया और उसके बाद वो कुछ किलोमीटर दूर अपनी मां के घर पर चली गईं। लेकिन मां ने भी उन्हें आश्रय देने से इन्कार कर दिया। उनके मन में मरने का विचार भी आया।सिंधुताई ने भोजन के लिए रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर भीख मांगना शुरू कर दिया। अगले तीन वर्ष ट्रेनों में भीख मांगकर गुजारा करते हुए बीते। वह शमशान में रहीं, साथ ही उन्होंने शमशान में जलती चिताओं की अग्नि में रोटी सेंककर खायीं।

अपने संघर्ष के दिनों में उन्हें बेटी को एक अनाथाश्रम में रखने की नौबत आ पड़ी। बेटी को छोड़ने के बाद रेलवे स्टेशन पर जब एक निराश्रित बच्चा पड़ा मिला तो उनके मस्तिष्क में विचार कौंधा ऐसे हजारों बच्चे और भी हैं। उनका क्या होगा? तब से उन्होने निर्णय लिया कि जो भी अनाथ उनके पास आएगा वे उनकी माँ बनेंगी। उन्होने अपनी खुद कि बेटी को ‘श्री दगडुशेठ हलवाई, पुणे, महाराष्ट्र’ ट्र्स्ट में गोद दे दिया ताकि वे सारे अनाथ बच्चों की माँ बन सके।

इसी प्रक्रिया में, वह कई ऐसे बच्चों के संपर्क में आई, जिन्हें उनके माता-पिता ने छोड़ दिया था। उन्होंने उन बच्चों को स्वयं की संतान के रूप में अपनाया और उन्हें खिलाने-पिलाने के लिए और भी काम करना शुरू कर दिया। सिंधुताई ने हर किसी के लिए मां बनने का फैसला किया जो अनाथ के रूप में उनके पास आए थे। सिन्धुताई ने अपना पुरा जीवन अनाथ बच्चों के लिए समर्पित किया है। इसलिए उन्हे “माई” (माँ) कहा जाता है।
अब तक वो 1400 से अधिक बच्चों को अपना चुकी हैं। वो उन्हें पढ़ाती है, उनकी शादी कराती हैं और जिन्दगी को नए सिरे से शुरू करने में मदद करती हैं। ये सभी बच्चे उन्हें माई कहकर बुलाते हैं, बच्चों में भेदभाव न हो जाए इसलिए उन्होंने अपनी बेटी को अपने पास नहीं रखा। आज उनकी बेटी बड़ी हो चुकी है और उनकी बेटी वकील है, वो भी एक अनाथालय चलाती है।सिंधुताई का परिवार बहुत बड़ा है। उनके 207 जमाई है, 36 बहुएं हैं और 1000 से अधिक पोते-पोतियां हैं। आज भी वो अपने काम को बिना रुके करती जा रही हैं। वो किसी से मदद नहीं लेती हैं बल्कि खुद स्पीच देकर पैसे जमा करने की कोशिश करती हैं और उन्होंने गोद लिए बहुत सारे बच्चे आज डाक्टर, अभियंता, वकील है और उनमें से बहुत सारे खुद का अनाथाश्रम भी चलाते हैं।

सिन्धुताई को कुल २७३ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए है जिनमें “अहिल्याबाई होलकर पुरस्कार’ है जो स्रियाँ और बच्चों के लिए काम करने वाले समाजकर्ताओं को मिलता है, महाराष्ट्र राज्य सरकार द्वारा। मिले सारे पैसे वे अनाथाश्रम के लिए इस्तेमाल करती हैं। उनके अनाथाश्रम पुणे, वर्धा, सासवड (महाराष्ट्र) में स्थित है। २०१० साल में सिन्धुताई के जीवन पर आधारित मराठी चित्रपट बनाया गया “मी सिन्धुताई सपकाळ”, जो ५४ वे लंदन चित्रपट महोत्सव (फ़िल्म फेस्टिवल) के लिए चुना गया था।

सिन्धुताई के पति जब 80 साल के हो गये तब वे उनके साथ रहने के लिए आए। सिन्धुताई ने अपने पति को एक बेटे के रूप में स्वीकार किया, ये कहते हुए कि अब वो सिर्फ एक माँ है। आज वे बडे गर्व के साथ बताती है कि वो (उनके पति) उनका सबसे बडा बेटा है। सिन्धुताई कविता भी लिखती है और उनकी कविताओं मे जीवन का पूरा सार होता है। वे अपनी माँ के आभार प्रकट करती है, वे कहती हैं अगर उनकी माँ ने उनको पति के घर से निकालने के बाद घर में सहारा दिया होता तो आज वो इतने सारे बच्चों की माँ नहीं बन पाती।

उनके अवॉर्ड्स में राष्ट्रपति सम्मान और अहिल्याबाई पुरस्कार भी शामिल हैं । सिंधुताई को लंदन, 2014 में आयोजित राष्ट्रीय शांति संगोष्ठी में अहमदीय शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका गया है। उनके नाम पर 6 संस्थाएं चलती हैं जो अनाथ बच्चों की मदद करती हैं।

जयति जैन “नूतन “, 441, सेक्टर 3, BHEL पंचवटी मार्केट के पास, शक्तिनगर, भोपाल, (462024)