धन-धान्य के देवता भगवान जगन्नाथ स्वामी की पूजा

चैत्र मास के चारों सोमवार को ‘तिसुआ सोमवार’ कहा जाता है। इन चारों सोमवार को भगवान जगन्नाथ के मंदिर और प्रतीकों की पूजा होती है। मान्यता है कि इन चारों सोमवार पर सच्ची श्रद्धा से व्रत रखने से सभी दुख दूर होते हैं। कहते हैं कि सुदामा ने सर्वप्रथम इस व्रत को रखा था और उनके सारे दुख दूर हुए थे । तब से इस व्रत की परंपरा चल निकली।

हमारे यहां बैसवारा में भी चैत्र मास के प्रत्येक या कम से कम एक सोमवार को गृहिणियां ‘धन-धान्य के देवता भगवान जगन्नाथ स्वामी’ की पूजा करती हैं। इस पूजा में गुझिया, खीर, दही, हलवा-पूरी के अतिरिक्त जौ, गेँहू की सात बालियां तथा कच्चा आम (टिकोरे) चढ़ाना शुभ माना जाता है। अगर सात टिकोरों का गुच्छा मिल जाये तो उसे बहुत ही शुभ माना जाता है।

मेरी अजिया (दादी)भी यह पूजा पूरे विधि विधान से करती थी। हालांकि मैं उस समय 10-12 वर्ष का रहा होऊंगा लेकिन मुझे याद है उस दिन चैत्र मास का सोमवार ही था। अजिया पूजा की सारी सामग्री की व्यवस्था पहले ही कर चुकी थी। गुझिया बन चुकी थी, पूड़ी बनाने की तैयारी चल रही थी। तभी अजिया मुझे बुलाकर बोली-

“मुन्ना, सब कुछ आ गवा है। बस अमिया (आम के टिकोरे) रहि गै है। जाव अपने वाले आम से टूरि लाव। अगर सात का घौद (गुच्छा) मिलि जाय तो बहुइते बढ़िया, शुभ माना जाता है। मुला ज्यादा हलाकान न होयो , पतरी-निमरी डार पै तो भूल्यो का न चढ़्यो। जाव हल्दी (जल्दी) से लै आव।”

मैं बचपन में बहुत हल्के शरीर का था। बोले तो शरीर में हड्डी ही हड्डी दिखती थी। इसलिए छप्पर पर चढ़कर तरोई, लौकी तोड़ने का कार्य हमसे ही कराया जाता था। पेड़ पर चढ़कर फल तोड़ना, दातून लाना हम अपने आप कर दिया करते थे। क्योंकि इस तरह के काम में हमारा खूब मन लगता था। इसलिए अजिया का आदेश मिलते ही मैं एक बड़े से डंडे में हंसिया बांधकर आम के पेड़ की तरफ दौड़ पड़ा।

हालांकि अजिया ने सात अमिया वाले गुच्छे के लिए कोई विशेष आग्रह न किया, बस यह बोली थी कि आसानी से मिले तो ले आना। लेकिन अजिया हमारी हर इच्छा पूरी करती थी तो क्या मैं उनकी एक छोटी सी इच्छा पूरी करने का प्रयास भी न करूं। इसलिए मैंने अपने आम के पेड़ के चारों तरफ घूमकर मुआयना किया कि कहीं कोई सात टिकोरों का गुच्छा नीचे से दिख जाए तो मैं डंडे में बंधी हंसिया से उसे काट लूं। लेकिन मुझे नीचे से कोई भी सात अमिया (टिकोरों) का गुच्छा नहीं दिखा।

तब मैंने आदतानुसार पहले अपने चप्पल उतारे, आम के पेड़ के तना (जड़) के पैर छुए और फिर सर्र से ऊपर चढ़ गया। इधर-उधर डालों पर नजर घुमाई , फिर नीचे की एक -एक डाल पर जहां तक सुरक्षित जा सकते थे, निहुरे-निहुरे गए लेकिन सात का गुच्छा नजर न आया। अब थोड़ा और ऊपर चढ़ा तो एक सात का गुच्छा दिख गया। लेकिन वह काफी दूर था और वह डाल भी उतनी मोटी न थी।

हमारे गांव के जंगल में ‘कंजी (करंज)’ के खूब पेड़ हैं। जिनमे हम गुलहरि नामक खेला करते थे। खेल के दौरान हम इस से भी पतली-पतली डालों से बेझिझक कूद और चढ़ जाया करते थे। यह डाल तो उस से काफी मोटी थी। यहीं सोचकर मैं उस डाल पर आगे बढ़ना लगा। अब गुच्छा काफी पास था । मैं थोड़ा और आगे बढ़ा तो ऐसा लगा कि गुच्छा अब मेरी रेंज में है। पूरा हाथ आगे बढ़ाया लेकिन करीब आधे फिट का फासला अब भी रह गया था।

इतना पास आकर खाली हाथ तो न जाऊंगा, यह सोचकर थोड़ा और आगे बढ़ गया। हालांकि अब मुझे थोड़ा डर भी लग रहा था। पर यह सोचकर थोड़ी हिम्मत करके एक कदम आगे और बढ़ाया कि अजिया के आंचल ने न जाने कितनी बार मुझे अभयदान दिया है। न जाने कितनी बार अम्मा की मार से मुझे बचाया है, मेरा भय खत्म किया है। इसलिए मुझे भी भय पर विजय पाकर अजिया की इच्छा पूरी करनी चाहिए। थोड़ा आगे बढ़ा तो गुच्छा बिल्कुल मेरी रेंज में था। बस हाथ बढ़ाकर तोड़ने भर की देर थी। लेकिन जैसे ही मैंने पूरा हाथ बढ़ाकर गुच्छा तोड़ने की कोशिश की, मुझे ‘चर्ररर्र-चर्ररर्र’ जैसी आवाज सुनाई दी।

इस से पहले कि मैं कुछ समझता या संभलता, पूरी डाल पेड़ से अलग हो चुकी थी और मैं हाथ में गुच्छा पकड़े हुए बजरंग बली की तरह डाल सहित धम्म से नीचे खेत पर आ गिरा। खेत चौमास था यानि उसमें सिर्फ धान की खेती होती थी, गेंहूँ के समय खाली पड़ा रहता था। अतः खेत में कोई फसल नहीं था, खेत बिल्कुल सूखा था।

इसलिए इतनी ऊंचाई और बिल्कुल सूखे, कठोर खेत में पीठ के बल धड़ाम से गिरने के कारण मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा गया था। एक क्षण के लिए तो मुझे ऐसा लगा कि मेरा परलोक का टिकट कट गया है और गलती से बच भी गए तो जितनी जोर से गिरे हैं उससे मेरी हड्डियां और हाथ- पैर तो सलामत न बचेंगे। लेकिन भगवान जगन्नाथ की कृपा से मैं किसी बड़ी चोट से बच गया था। पीठ पर कुछ अंदरूनी चोट तो लगी थी और हाथ-पैर भी छिल गए थे लेकिन सारी हड्डियां सुरक्षित थी।

घर जाकर मैंने बिना किसी को कुछ बताए साथ वाला गुच्छा अजिया को सौंप दिया। वह बहुत खुश हुई। मैं भी वहीं बैठ गया। पूजा करने के बाद प्रसाद देने के लिए उठी तो हाथ में खरोंच देखकर बोली-” बच्चा, यह कहाँ लागि गा??”

मैं इसके पहले कि कुछ बोलता उनकी नजर छिले पैर और गंदे शर्ट तक भी पहुंच चुकी थी। वह समझ गई कि ये चौपटा कुछ कांड कर आया है। अजिया से चूंकि कोई डर न था इसलिए उन्हें पूरी बात एक सांस में बता दी। वह कुछ गुस्सा तो हुई , थोड़ा डांटा भी लेकिन तुरत ही प्रसाद को एक कोने में रखकर हल्दी-चूना का लेप बना लाई। मुझे चारपाई पर लिटाकर और शर्ट उतारकर उन्होंने पीठ पर लेप लगा दिया। जहां छिल गया था, वह सिर्फ हल्दी लगा दी।

कुछ देर मेरे सिरहाने बैठी रही फिर समझाते हुए बोली-” बच्चा , जईसे अम्मा औ अजिया के स्वभाव मां फरक है। वी हैं थोड़ी गरम तो हम हैन बिल्कुल नरम। वइसेन बिरवन का स्वभाव ह्वात है। कंजी हमई तरह नरम होति है , जियादा भार बरजास्त करि लेत है। अउर आम, जामुन तुम्हई अम्मा की तरह गरम, तिनुको जियादा भार परा तो पटकि देति हैं। अगली बार से ध्यान राख्यो, ठीक है।”

अजिया का दिया हुआ यह अमूल्य ज्ञान मैंने आज तक संभाल के रखा हुआ है और चैत के हर सोमवार में दोहरा लेता हूँ।

#जयजगन्नाथ

(विनय सिंह बैस)
चैत माह में चोट खाने वाले