भारत की सरकारों के ‘हिन्दीप्रेम’ का यथार्थ

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

कल ‘विश्व हिन्दी-दिवस’ था और ऊपर भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का १५ दिसम्बर, २०१५ ई० का पत्र है, जिसे उन्होंने ‘विश्व हिन्दी-दिवस’ के अवसर पर प्रसारित कराया था। बोलने-लिखने-ट्वीट आदिक करने में नरेन्द्र मोदी की कहीं-कोई समानता नहीं। वे विदेशों में जाकर ‘हिन्दीभाषा’ में व्याख्यान करते हैं और भारतीय मूल के निवासियों-आप्रवासियों का दिल जीत लेते हैं; परन्तु वही नरेन्द्र मोदी विदेशों में एक बार भी इस आशय का भाषण करने का साहस नहीं जुटा पाते : अब हमने भारतीय संविधान में ‘देवनागरी लिपि’ और ‘हिन्दीभाषा’ को राष्ट्रभाषा (जनभाषा) का स्थान देने का संकल्प किया है। इतना ही नहीं, वही नरेन्द्र मोदी जब ‘दाक्षिणात्य भागों’– आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल आदिक में पहुँचते हैं तब ‘अँगरेज़ी’ में अपना भाषण करते हैं, क्यों?

ऐसे में, ‘हिन्दुत्व’ का गर्हित पहाड़ा पढ़ाकर, देश को बाँटने का षड्यन्त्र करनेवाले और ‘हिन्दुत्व’ को अपनी बौद्धिक सम्पत्ति समझनेवाले दलों और संघटनों से सम्बद्ध नरेन्द्र मोदी के मन में ‘देवनागरी लिपि’ और ‘हिन्दी-भाषा’ के प्रति कहीं-कोई अनुराग और आस्था नहीं दिखती। ऐसा इसलिए कि ‘देवनागरी लिपि’ और ‘हिन्दीभाषा’ की जड़ में उन्हें अपना ‘वोटबैंक’ नहीं दिखता। इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी अधिकतर योजनाओं के नाम ‘अँगरेज़ी’ में रखे हैं।

उल्लेखनीय है कि स्वतन्त्रता के बाद से जितने भी प्रधानमन्त्री बने हैं, लगभग सभी हमारी लिपि और भाषा को संवैधानिक राष्ट्रभाषा बनाने के प्रति पूरी तरह से निष्ठारहित रहे हैं; विशेषत: पं० जवाहरलाल नेहरू ने जिस अवसरवादी तुष्टीकरण की नीति अपनायी थी, अब उससे भी घातक नीति पर वर्तमान सरकार काम कर रही है। ऐसे राजनेताओं ने सत्ता के लिए हमारी लिपि और भाषा के उन्नयन के मार्ग में व्यतिक्रम उपस्थित करते आ रहे हैं। उसी मार्ग पर वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी भी वर्ष २०१४ से लगातार ‘क्षिप्र चल्’ का अनुसरण करते आ रहे हैं।

ऐसे में, मनसा-वाचा-कर्मणा देवनागरी लिपि और हिन्दीभाषा को उत्तुंग शिखर पर समासीन कराने के प्रति कटिबद्ध हम देश के समस्त हिन्दी-अनुरागी नागरिक सत्ताधारी और प्रतिपक्ष के राजनेताओं से अपनी लिपि और भाषा को ‘राष्ट्रलिपि’ और ‘राष्ट्रभाषा’ के रूप में संवैधानिक अधिकार दिलाने की अपेक्षा करते हैं। यद्यपि आज सत्तापक्ष और विपक्ष को अवसरवादी राजनीति ने ‘दिव्यांग’ बना दिया है तथापि वैसा करना उन्हीं के अधिकारक्षेत्र के अन्तर्गत है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ११ जून, २०२० ईसवी)