जड़ और विचार

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● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

यह विडम्बना ही है कि अद्वैतवादी सिद्धान्त और अभेदमूलक विचार की जन्मभूमि मे ही आरम्भ से भेदमूलक समाज रहा है। यहाँ सिद्धान्त और व्यवहार के मध्य एक गहरी खाई रही है। सम्भव है कि वर्ण-व्यवस्था का प्रारम्भिक रूप एक आदर्श के रूप मे रहा हो; परन्तु वर्ण-व्यवस्था ने जाति-व्यवस्था को जन्म देकर भारत पर गम्भीर अपकार किया है। वृक्ष पर दृष्टि निक्षेपित करने पर उसकी शाखाएँ और पत्तियाँ लक्षित होती हैं, जबकि उसकी जड़ें अन्तर्हित रहती हैं। उसी प्रकार व्यक्ति पर दृष्टिपात होने से उसका व्यक्तित्व और आचरण समक्ष उभरता है; किन्तु उसका विचार दृष्टि-पटल पर अंकित नहीं हो पाता। विचार ही मनुष्य की जड़ है। यदि विचार की जड़ों को व्यवस्था से असम्पृक्त कर दिया जाये तो ‘आचरण’ स्वतः पंगु हो जायेगाः वृक्ष के प्राण जड़ मे बसते हैं और राष्ट्र के प्राण विचार मे। जाति-प्रथा को अपनाकर भारत ने विचार के धरातल पर आत्मघात कर लिया है, जिसके कारण आचरण के तल पर वह ‘बौना’ बनता जा रहा है।

जाति-प्रथा चुनाव-प्रणाली-रूपी द्रौपदी का चीर-हरण करती आ रही है, जो गणतन्त्र के लिए एक बहुत ही भयावह संकेत है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १७ जून, २०२२ ईसवी।)