● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
भारत मे वैसी विकृत मानसिकता के महिला-पुरुषों, वह भी सुशिक्षिता-सुशिक्षितों, की कोई कमी नहीं है, जो अल्पज्ञानी है; जीने-खाने के लिए ‘नौकरी-चाकरी’ कर रहे हैं और भीतर मुसलिम-समुदाय के लिए विष और अंगारे भरे हुए हैं। ऐसे सभी लोग इस धरती पर भारस्वरूप जीते आ रहे हैं। थोड़ा-बहुत पढ़ना-लिखना क्या आ गया, बहुत बड़े तीसमार ख़ाँ लगने लगे हैं और लगाने भी। सच तो यह है कि कुत्सित-कलुषित और कुण्ठित-लुण्ठित मानसिकता-युक्त ऐसे लोग बताये गये ‘सत्य’ को समझने का प्रयास भी नहीं करते। स्वयं तो जीवन मे ऐसा कुछ कर नहीं पाये और कर भी नहीं पायेंगे; क्योंकि उनके भीतर की साम्प्रदायिक कटुता उन्हें भीतर तक खाकर ‘खोखला’ बनाती आ रही है और उनकी बौद्धिकता को नितान्त निकृष्ट स्तर पर लाकर छोड़ देती है, शेष कालिमामय जीवन-यापन करने के लिए।
मेरा निजी पुस्तकालय अतीव समृद्ध है, जिसमे जड़-चेतन से सम्बन्धित प्रत्येक विषय पर पुस्तकें और अधिकतर दस्तावेज़ उपलब्ध हैं। कल रात्रि मे मैने खंगालने शुरू किये, जिसका परिणाम रहा कि ऐसे लोग के गाल पर भरपूर तमाचा मारने के लिए अभी कुछ ही अवधि मे सप्रमाण एक लेख टंकित कर लिया है, जिनका मानसिक और बौद्धिक धरातल नितान्त हलके-फुलके (‘हल्के-फुल्के’ अशुद्ध है।) स्तर का दिखता रहा है और दिख रहा है।
देशभक्त मुसलमानो से घृणा करनेवालों इसे पढ़ो
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देश के बहुसंख्य लोग आज तक नहीं जान पाये हैं कि 'भारतमाता की जय' उद्घोष की उत्पत्ति करनेवाला कौन था। महान् स्वतन्त्रतासेनानी 'अज़ीमुल्लाह ख़ान' ने १८५७ ई० की महाक्रान्ति मे 'मादरेवतन हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद' का नारा लगाया था, जिसे स्वामी दयानन्द सरस्वती ने स्वीकार कर लिया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पाँच सेनानियों :– नाना साहेब, ताँत्या टोपे, अज़ीमुल्लाह ख़ान, बाला साहब तथा बाबू कुँवर सिंह का एक संघटन बनाया था, जो 'वर्ष १८५७ की महाक्रान्ति' के कर्णधार बने थे। आगे चलकर, उसका हिन्दी मे अनुवाद किया गया था, 'भारतमाता की जय'।
भारत के राष्ट्रीय गीत के रूप मे प्रतिष्ठाप्राप्त 'सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा' की रचना शोहरतयाफ़्ता (प्रख्यात) शाइर ('शायर' अशुद्ध है।) 'मुहम्मद इक़बाल' ने १९०५ ई० मे की थी, जिसका उन्होंने सर्वप्रथम उस सरकारी कॉलेज, लाहौर मे गायन करके सुनाया था, जिसमे वे व्याख्याता थे। यह अमर गीत इक़बाल के गीतसंग्रह 'बंग-ए-दारा' मे सम्मिलित है।
"इन्क़िलाब ज़िन्दाबाद" (Long Iive Revolution) का उद्घोष 'हसरत मोहानी' ने १९२१ ई० मे सबसे पहले किया था, उसके अनन्तर शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह ने इसका प्रयोग अपने भाषणो और लेखन मे किया था। लोग 'इन्क़िलाब ज़िन्दाबाद' का नारा लगाते तो हैं; परन्तु उनमे से बहुसंख्य लोग ऐसे हैं, जो इसका अर्थ बिलकुल नहीं जानते, जबकि इसका अर्थ 'दीर्घकालीन क्रान्ति' है।
'सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे है, देखना है, ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल मे है'– इस क्रान्तिकारी गीत को महान् क्रान्तिधर्मी रामप्रसाद 'बिस्मिल' 'मरते दम' तक गाते रहे, जिसके कारण बहुसंख्य लोग यही जानते आ रहे हैं कि उक्त गीत की रचना रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने ही की थी, जबकि सत्य इससे परे है। सत्य यह है कि इस क्रान्तिकारी गीत के रचयिता १९०१ ई० मे पटना से ३० किलोमीटर की दूरी पर हरदास बिगहा गाँव मे जन्म लेनेवाले सय्यद शाह मोहम्मद हसन थे, जो आगे चलकर, 'बिस्मिल अज़ीमाबादी' के नाम से चर्चित हुए थे। वे पराधीनता के समय के जाने-माने शाइर थे। बिस्मिल अज़ीमाबादी के पोते मुनव्वर हसन का कहना है,"यह ग़ज़ल लड़ाई के वक़्त काज़ी अब्दुल गफ़्फ़ार की पत्रिका 'सबाह' मे १९२२ ई० मे प्रकाशित की गयी थी। बिस्मिल अज़ीमाबादी अपना अख़बार भी प्रकाशित करते थे, जिसका नाम 'अज़ीमाबाद एक्सप्रेस' था, जिसमे उक्त ग़ज़ल कई भागों मे प्रकाशित होती रही, जिसे पढ़कर अँगरेज़ी सरकार तिलमिला उठी थी। यह ग़ज़ल रामप्रसाद 'बिस्मिल' को इतनी रास आयी थी कि वे १९२७ ई० मे सूली पर चढ़ते समय भी इस ग़ज़ल को गाते रहे और मृत्युपथ पर बढ़ते रहे।
'Simon go back' नामक उद्घोष १९२८ ई० मे 'यूसुफ़ मेहर अली' ने किया था, तब उन्होंने भारत मे 'साइमन कमीशन' के विरोध मे जो सबसे पहले झण्डा लहराया था, उसपर उक्त विरोधात्मक वाक्य अंकित था।
प्रख्यात इतिहासकार नरेन्द्र लूथर-द्वारा लिखित पुस्तक 'लिजेण्डोट्स ऑव़ हैदराबाद' मे उल्लेख है कि 'इण्डियन नेशनल आर्मी' मे मेजर का दायित्व-निर्वहण करनेवाले, सुभाषचन्द्र बोस के निजी सचिव और द्विभाषिया 'आबिद हसन सफ़रानी' ने 'जय हिन्द' उद्घोष की रचना की थी। सफ़रानी ने वर्ष १९३३ मे जब पहली बार सुभाषचन्द्र बोस से भेंट की थी तब उन्होंने पहले 'हलो' शब्द का प्रयोग किया था, जिसपर सुभाषचन्द्र बोस क्रुद्ध ('क्रोधित' अशुद्ध शब्द है।) हुए थे, फिर सफ़रानी ने 'जय हिन्द' कहकर उनका स्वागत किया था, जो बोस को भा गया था। वह उद्घोष 'आइ० एन० ए०' (इण्डियन नेशनल आर्मी) और क्रान्तिधर्मियों के 'आधिकारिक उद्घोष' का रूप ग्रहण कर चुका था।
आगे चलकर, सुभाषचन्द्र बोस के भतीजे अरबिन्दो बोस ने आबिद हसन सफ़रानी की भतीजी सुरैया हसन के साथ विवाह किया था। शोधकर्त्ता और लेखक लियोनार्ड ए० गॉर्डन की पुस्तक 'ब्रदर्स अगेन्स्ट द राज' मे इस तथ्य का उल्लेख किया गया है कि 'जय हिन्द' उद्घोष को आबिद हसन सफ़रानी ने गढ़ा था। प्रथम स्वतन्त्रतादिवस की मध्यरात्रि में स्वाधीन भारतवासियों को सम्बोधित करते समय अपने संदेश मे भी 'जयहिन्द' का प्रयोग किया था।
आबिद हसन सफ़रानी को द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर, अँगरेज़ी सरकार ने गिरिफ़्तार करा लिया था, फिर उन्हें १९४६ ई० मे भारत लाया गया था।
बॉम्बे के मेयर और स्वतन्त्रतासेनानी यूसुफ़ मेहर अली ने १९४२ ईसवी मे महात्मा गान्धी को उपहारस्वरूप एक धनुष भेंट किया था, जिस पर उत्कीर्ण था, ‘Quit India’ (भारत छोड़ो।) उस उपहार पर अंकित वाक्य को पढ़ते ही गान्धी जी ने कहा था, “आमीन।” (ऐसा ही हो।)। उसके बाद महात्मा गान्धी ने उसके हिन्दी-अनुवाद ‘भारत छोड़ो’ का प्रयोग किया था।
१९२१ ई० मे महात्मा गान्धी ने 'भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस' की एक बैठक मे राष्ट्रध्वज की आवश्यकता पर बल दिया था। इतिहासकार कहते हैं कि हैदराबाद के एक प्रतिष्ठित मुसलिम-परिवार की बुद्धिजीवी सदस्या 'सुरैया बदरुद्दीन तैयबजी' ने राष्ट्रीय ध्वज का प्रारूप तैयार किया था, जिसे संविधानसभा ने राष्ट्रध्वज के रूप मे स्वीकृत किया था। इसे अशासकीय संघटन 'फ़्लैग फाउण्डेशन ऑव़ इण्डिया' ने भी मान्यता दी थी। इतिहासकार कैप्टन एल० पाण्डुरंग रेड्डी (हैदराबाद) ने भी तिरंगे की वास्तविक सज्जाकार (डिज़ाइनर) सुरैया तैयबजी को ही माना है।
प्रतिष्ठित कलाकार सुरैया ने एक भेंटवार्त्ता मे बताया था, जिसका भावानुवाद है :– मेरे अब्बा, बदरुद्दीन तैयबजी प्रधानमन्त्री-कार्यालय मे एक आइ० सी० एस०-अधिकारी (आज का 'आइ० ए० एस०' सबसे पहले 'इण्डियन सिविल सर्विसेस' कहलाता था।) अधिकारी के रूप मे प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू के अधीन ('आधीन' अशुद्ध शब्द है।) कार्यरत थे। राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता मे एक 'ध्वज-समिति' गठित की गयी थी। मेरी माँ ने ध्वज का एक ग्राफ़िक प्रतिनिधित्व बनाया था।
फिर सुरैया ने बताया था कि कैसे उनके अम्मी-अब्बा के मन मे ‘अशोकचक्र’ का विचार आया था।
सुरैया ने बताया :– मेरे अब्बा ने उस पहले झण्डे को ‘रायसीना हिल पर आरोहण करते हुए देखा था, जिसे कनाट प्लेस मे ‘एडे टेलर्स ऐण्ड ड्रेपर्स’ के यहाँ मेरी अम्मी की देख-रेख मे सिलवाया गया था।
ब्रिटिश लेखक ट्रेवर रॉयल ने अपनी पुस्तक ‘द लास्ट डेज़ ऑव़ द राज’ मे लिखा है :– भारत के इतिहास मे विद्यमान अन्तर्विरोध मे से एक, राष्ट्रीय ध्वज है, जिसे एक मुस्लिम, बद-उद-दीन तैयबजी-द्वारा डिज़ाइन किया गया था और फ़हराया गया था। उसे तैयब जी की पत्नी-द्वारा विशेष रूप से बनवाया गया था।
कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि काँग्रेसी कार्यकर्त्ता, आन्ध्रप्रदेश के पिंगली/पिंगले वेंकैया ने राष्ट्रध्वज का प्रारूप तैयार किया था। यह भी ज्ञात हुआ है कि पिंगले वेंकैया का नाम ‘भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस’ के दबाव के कारण दर्ज़ कराना पड़ा था। महात्मा गान्धी चाहते थे कि राष्ट्रध्वज मे तीन रंगों की पट्टियाँ हों, जिसमे लाल हिन्दूवर्ग, हरा मुस्लिमवर्ग तथा श्वेत रंग अन्य समुदायों का प्रतिनिधित्व करता हुआ दिखे तथा ध्वज के मध्य मे उनके प्रिय चरखा को स्थान दिया जाये। १९३१ ई० मे ‘भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस’ की ‘ध्वज-समिति’ की ओर से तिरंगे मे अनेक परिवर्त्तन किये गये थे, जिसके अनुसार, ‘लाल’ रंग के स्थान पर ‘केसरिया’ रंग का प्रयोग किया गया था। ‘द हिन्दू’ मे २६ सितम्बर, २००४ ई० को ‘Truths About The Tricolour’ विषय पर इतिहास-लेखक रामचन्द्र गुहा का लेख प्रकाशित किया गया था, जिसमे उक्त तथ्योद्घाटन किया गया है।
◆ इस लेख को अभी विस्तृत करना है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १८ अगस्त, २०२३ ईसवी।)