शेष-अवशेष

पृथ्वीनाथ पाण्डेय

एक–
मन में मनका है नहीं, मन से मन का दोष।
जीव ब्रह्म से पूछता, मन का कैसा रोष?
दो–
कान्ति अलक्षित हो रही, प्रमा अमा का रूप।
यत्र-तत्र-सर्वत्र है, जीवन-रूप अनूप।।
तीन–
यश-अपयश चहुँ ओर है, जीवन भेद-विभेद।
मन-मानस में पाप है, कहीं न कोई खेद।।
चार–
रंग-रूप से है परे, विधि का परम विधान।
नीर-क्षीर अब हैं कहाँ और परे है ज्ञान।।
पाँच–
कोप दिखाती आपदा, धीर नहीं जन पीर।
कलुषित राजविधान है, कहते जन गम्भीर।।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ६ मई, २०२० ईसवी)