● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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ऐ हवा!
मेरी देह पर तुम्हारा दृष्टि-अनुलेपन
सम्मोहन के पाश मे
आबद्ध कर रहा है।
तुम्हारा संस्पर्श–
एक अबूझ पहेली है,
जो है और नहीँ भी।
आंशिक छुवन का एहसास–
एक मादक विष की तरह
मन मे उतरता चला आ रहा है।
चेतना शून्य नहीँ होती;
संज्ञा सम्भाले जो रहती है।
मेरी निजता का प्रश्न
तुमसे होकर ही है,
जो तुम्हारा पीछा नहीँ छोड़ता।
वह अब एक यक्ष-प्रश्न बन,
निष्कण्टक वन मे विचरण करते,
एक उन्मुक्त मन-प्राण लिये हरिण-सदृश–
इतस्तत: चौकड़ी भरता
अनुभव करा रहा है;
इस आशा मे–
कदाचित् कोई मेघदूत आकर,
उत्तर को बाँच दे
और मुक्त हो जाऊँ,
सम्मोहन-पाश से।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २१ सितम्बर, २०२४ ईसवी।)