जिस द्वार हुए हो अपमानित,
उस द्वार कभी मत जाना तुम।
अपनी रूखी-सूखी खाकर,
ख़ुद से ही लाज बचाना तुम।।
कुछ आएँगे समझाने को,
तुमको ही ग़लत बताने को।
निज बातों में उलझाने को,
ख़ुद को बेहतर दिखलाने को।।
हो सके उन्हें सम्मानित कर,
नैनों का नीर छुपाना तुम।
जिस द्वार…..
कुछ आएँगे हरषाने को,
हर ओछे ख़्वाब दिखाने को।
मिथ्या अमृत के कलश दिखा,
बोलेंगे विष टपकाने को।।
उनका मधुमय संकीर्तन कर,
उनको उनका लौटाना तुम।
जिस द्वार…..
कुछ आएँगे बतलाने को,
जो हुआ बहुत ही ग़लत हुआ।
तुम ऐसे थे वो वैसे थे,
तुम पिटवा थे वो थे ढलवा।।
इन गिरगिटिया अवतारों से,
फ़िर भ्रमित नहीं हो जाना तुम।
जिस द्वार…..
© जगन्नाथ शुक्ल…✍️
(प्रयागराज)