आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला
हमारे विद्यार्थी और अध्यापक-अध्यापिका वृन्द ‘डी० लिट्०’ (डि. लिट., डि. लिट्., डि० लिट०, डि० लिट्०, डी. लिट., डी. लिट्. तथा डी० लिट० अशुद्ध हैं।) उपाधि अर्जित (यहाँ ‘प्राप्त करने’ अशुद्ध है।) करने के उद्देश्य से ‘कुछ अलग हटकर’ शोधकर्म करने के लिए विषय की माँग करती हैं। हमने उनके लिए नितान्त नया और अनन्य विषय का चयन किया है, जिसमें उनके स्वाध्याय और चिन्तन की विशेष भूमिका होगी। उस सारगर्भित विषय की पृष्ठभूमि अधोलिखित है :—
◆ अँगरेज़ी और हिन्दी की प्रकृति एक-दूसरे से नितान्त भिन्न हैं। अँगरेज़ी में मात्र ‘थैंक्स’ से धन्यवाद, साधुवाद, कृतज्ञ, आभार आदिक का अर्थबोध कर लिया जाता है, हिन्दी में ऐसा नहीं है। हिन्दी में जितने भी क्रियात्मक शब्द हैं, वे ‘करने’ का ही अर्थ-भाव व्यक्त करते हैं, न कि ‘देने’, ‘रखने’ का, जबकि अँगरेज़ी में ‘गिव’ और ‘डेलिवर’ एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। अँगरेज़ी में एक ‘हैप्पी’ से प्रसन्नतासूचक सभी भाव अथवा रस (‘भावों’/’रसों’ अशुद्ध है।) का प्रकटन हो जाता है, जबकि हमारी हिन्दी में ऐसा नहीं है। अँगरेज़ी का एक ‘पुट’ सभी रूपों में व्यवहृत होता है, जबकि हिन्दी में ‘रखना’ क्रिया से काल के तीनों रूप और उन रूपों के चार प्रकारों की भिन्न वर्तनी (अक्षरी) दिखती है। इस प्रकार के लाखों-करोड़ों प्रयोग हैं, जो शोध और गवेषणा के विषय बन चुके हैं। यही कारण है कि हमारी लिपि और भाषा को ही ‘वैज्ञानिक’ कहा गया है।
आप हमारी इस अवधारणा का स्वाध्याय और चिन्तन के आधार पर ‘वटवृक्ष’ का रूप दे सकते हैं।
यह हमारी पाठशाला की ओर से इस समूह की समस्त सदस्य-सदस्याओं के लिए एक ‘सारस्वत’ ललकार है। अपनी सामर्थ्य को विकसित करने में दक्ष और समर्थ व्यक्ति ही इस श्रमसाध्य, समयसाध्य तथा कष्टसाध्य ललकार को आगे बढ़कर स्वीकार कर सकता है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २९ अक्तूबर, २०२१ ईसवी।)