आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला


आप प्रत्येक वर्ण के पञ्चमाक्षर/पंचमाक्षर का प्रयोग सम्बन्धित प्रत्येक शब्द में ‘लेखनी’ के माध्यम से तो कर सकते हैं; किन्तु ‘टंकण-माध्यम’ से वैसा सम्भव नहीं हो पा रहा है। ऐसा इसलिए कि सम्बन्धित ‘सॉफ़्टवेअर’ की उपलब्धता नहीं रहती।

प्रथम
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उदाहरण के लिए–
अङ्ग, चञ्चु (हिरन– पुंल्लिंग; चोंच– स्त्रीलिंग आदिक।) , कण्ठ, दन्त तथा कम्बु (कंगन; हाथी; शंख; गला आदिक।)– इनमें पञ्चमाक्षर का ही प्रयोग है।

अब यहाँ उक्त पञ्चमाक्षरों के प्रयोग उसी ‘सॉफ़्टवेअर’ की सहायता से किये गये हैं, जिससे ‘प्रथम उदाहरण’ के किये गये हैं। अब नीचे के ‘द्वितीय’ पंचमाक्षरों मे जो भिन्नता दिख रही हैं, उनके एकमात्र कारण पर विचार करेंगे तो प्रत्येक शंका और समस्या का क्रमश: समाधान और निराकरण हो जायेगा।

द्वितीय
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अब पुन: दृष्टि-निक्षेपण करें।
अलङ्कार, टङ्कित (अब आप इन्हें शुद्ध टंकित करें।) आञ्चलिक, अवगुण्ठन, आनन्दित, सम्पादित। (ये शुद्ध टंकित शब्द हैं।)

रहा विषय ‘कवर्ग’ के पंचमाक्षर का तो जहाँ तक ‘ङ्’ का शुद्ध व्यवहार हो रहा हो, किया जाना चाहिए। यहाँ ‘अलङ्कार’ के स्थान पर ‘अलंकार’ अधिक उपयुक्त माना जायेगा, शेष पञ्चमाक्षर शुद्ध लिखना चाहिए।

शेष पञ्चम वर्ण :– ञ्, ण्, न् तथा म् के प्रयोग मे कोई कठिनाई नहीं है।

भाषाशास्त्र के अन्तर्गत शब्दानुशासन है कि यदि किसी भी वर्ण की वर्तनी (अक्षरी) ‘वर्ण’ के साथ सम्पृक्त नहीं है तो उसका कोई ‘अर्थ और भाव’ नहीं होता।

उदाहरण के लिए :—
द् वार (‘वार’ से जुड़ा समझें।) इसका कोई अर्थ नहीं है। यही शब्द जब ‘द्वार’ के रूप मे लिखा जायेगा तब उसकी अर्थपूर्णता होगी।

व्यक्त, सत्त्व, स्वप्न, मर्त्य, भृत्य, कान्ति, अलम्, क्रीत, कर्तृत्व (‘कृतित्व’ अशुद्ध है।) कृमि, राष्ट्र, द्वन्द्व (‘द्वन्द’ अशुद्ध है।) ये सभी शब्द ‘मात्रा’, ‘सहायक वर्ण’, ‘रेफ’ तथा ‘हलन्त’ के स्तर पर एक-दूसरे को स्पर्श करते हुए दिख रहे हैं, जो विशुद्ध लेखन का परिचायक/परिसूचक/परिबोधक/परिद्योतक है।

ऐसे मे, जहाँ तक प्रौद्योगिकी/ तकनीकी व्यवस्था साथ दे, शुद्धता का निर्वहण करना, हम सभी का परम धर्म (कर्त्तव्य) है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १८ फ़रवरी, २०२२ ईसवी।)