जिजीविषा से भरपूर रही, रमेश सिंह मटियानी से ‘शैलेश मटियानी’ तक की यात्रा

कल (२४ अप्रैल) जिनकी पुण्यतिथि थी।

 'सर्जनपीठ' के तत्त्वावधान मे प्रसिद्ध कहानीकार शैलेश मटियानी की पुण्यतिथि के अवसर पर आज 'शैलेश मटियानी  की मार्मिक संघर्ष-यात्रा' विषयक एक आन्तर्जालिक बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन 'सारस्वत सदन', आलोपीबाग़ मे किया गया। 

मुख्य अतिथि के रूप मे हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के नवनिर्वाचित प्रधानमन्त्री कुन्तक मिश्र ने बताया– अल्मोड़ा जनपद के बाड़ेछिना गाँव मे १४ अक्तूबर, १९३१ को जन्म लेनेवाले शैलेश मटियानी बहुत ही अभावपूर्ण जीवन जीते रहे। यही कारण है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा सुव्यवस्थित क्रम मे न हो सकी थी। पेट की भूख जब सिर चढ़कर बोलती है तब मनुष्य कुछ भी करके गुज़र-बसर करने के लिए सोचता है। यही स्थिति मटियानी के साथ रही।

नयी कहानी को सार्थक दिशा देनेवाले यशस्वी कथाकार शैलेश मटियानी से उनके कर्नलगंज, प्रयागराज स्थित घर मे अनेक बार मिलकर संवाद करनेवाले भाषाविज्ञानी और समीक्षक आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने बताया– मटियानी जी की माता जी ने जीवन के अन्तिम समय मे उनसे कहा था, “बेटा! तेरे भाग्य मे दु:ख ज़रूर है; लेकिन धैर्य रखकर जीने की कोशिश करना; ईश्वर तेरी मदद करेगा।” यही कारण है कि उन्होंने अपनी माँ के कथन को सत्य बनाये रखने के लिए अपने बम्बई-प्रवास मे रहने-खाने के लिए बीस रुपये मे अपना एक सेर ख़ून बेचा था। पहले मापक सेर हुआ करता था। जिजीविषा से भरपूर रमेश ने पाँच बार अपने ख़ून बेचे थे और प्राप्त धनराशि से भोजन किये थे।

समीक्षक डॉ० मिताली चक्रवर्ती ने बताया– उनके भीतर लेखक बनने का एक विचित्र भूत सिर पर सवार था। यही कारण है कि वे दिल्ली गये, तब वे रमेश सिंह मटियानी के नाम से लेखन करते थे। उन्होंने होटल मे प्लेट साफ़ करने का भी काम किया था; लेकिन एक प्लेट के टूट जाने के कारण उन्हें वहाँ से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। लेखक बनने के दीवानेपन ने उन्हें दिल्ली पहुँचा दिया। वहाँ वे ‘अमर कहानी’ पत्रिका के सम्पादक ओमप्रकाश गुप्ता से मिले। गुप्ता ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और अपने घर पर ही रहने की व्यवस्था कर दी थी। ‘रंगमहल’ पत्रिका के लिए भी लिखने लगे थे। वहाँ भी उनका मन नहीं लगा। वे इलाहाबाद पहुँचे, जहाँ अनेक कारुणिक घटनाओं के बाद भी उन्होंने अपने धैर्य को बनाये रखा था।

डॉ० अजय शुक्ल ने कहा– इलाहाबाद उनका प्रवास बना, फिर निवास बन गया। इलाहाबाद के कर्नलगंज मुहल्ले रहते हुए उन्होंने अपने भीतर के कहानीकार को पूरी तरह से जगा दिया था। इलाहाबाद के प्रकाशक और साहित्यकार डॉ० अभय मित्र ने यथासामर्थ्य उनकी कृतियों का प्रकाशन किया था, जिसका इन पंक्तियों का लेखक साक्षी बना था। उनके ३० उपन्यास, २८ कहानी-संग्रह, १६ बालसाहित्य तथा वैचारिक लेखों का संग्रह इस बात का प्रमाण है कि इलाहाबाद मे उनका लेखन चरम पर रहा।