प्रकाशन-जगत् का शुक्ल और कृष्णपक्ष

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

पुस्तकें जीवन-मरण का आख्यान करती हैं। पुस्तकें कृष्ण और शुक्ल-पक्षों का अनावरण करती हैं। पुस्तकें मर्मान्तक पीड़ा देती हैं। पुस्तकें मन-प्राणों पर इन्द्रधनुषी रंगों का अनुलेपन करती हैं। पुस्तकें राग-अनुराग और द्वेष-विद्वेष से युक्त करती हैं और वियुक्त भी। पुस्तकों में अक्षर हैं, जिनका क्षरण नहीं होता, तभी तो अक्षर ‘ब्रह्म’ से सम्पृक्त रहता है और ब्रह्मरूप बन जाता है।

उस ब्रह्म का अनादर कितना घातक होता है, इसे समझने के लिए, वर्तमान प्रकाशन-जगत् की वास्तविकता से जुड़ना होगा। चूँकि वर्तमान का मूलाधार ‘अतीत’ है, अत: पृष्ठभूमि को समझना अनिवार्य हो जाता है।

तीस-चालीस वर्षों-पूर्व एक सामान्य-सा अक्षरधर्मी प्रकाशकों के लिए ‘भगवान्’ होता था; सभी प्रकाशकों के लिए नहीं। उनकी बहुत मान-सम्मान और प्रतिष्ठा होती थी। तब के कुछ प्रकाशक अतीव सांस्कारिक होते थे। उन कुछ प्रकाशकों में से कतिपय प्रकाशक ऐसे होते थे, जो ऐसे शब्दधर्मियों का महत् समादर करना अपना ‘धर्म’ और ‘प्रकाशकीय मर्म’ समझते थे, जिनकी पुस्तकें उन्होंने तब तक अथवा कभी प्रकाशित तक नहीं की थीं। मेरे संज्ञान में दो नाम हैं : १- स्मृतिशेष श्री कृष्णचन्द्र बेरी (पिशाचमोचन, वाराणसी) और आर्या बुक डीपो (करोलबाग़, दिल्ली के स्वामी)। दोनों के साथ मेरी प्रथम भेंट अति सुखदायक थी। बेरी जी का प्रकाशन अत्यन्त समृद्ध था। मैं उनके पास गया था; परिचय हुआ। जैसे ही मेरा नाम उन्होंने सुना वैसे ही उनके अन्तरंग शब्द फूट पड़े थे, “अरे! मेरे घर भगवान् आ गये। अब तुम्हारे लिए कक्ष की व्यवस्था कर दी गयी है। आराम से रहो; खाओ-पिओ। दूर से आये हो; आराम कर लो, फिर बातें होंगी।”

सन्ध्या के समय बेरी जी मुझे अपने कक्ष में, फिर अपने प्रकाशन-कक्ष में ले गये। उन्होंने कहा, “इनमें से तुम्हें जो-जो पुस्तकें पसन्द हो, ले लो।” मैंने ‘बंकिम-समग्र’, ‘कबीर-समग्र’, ‘भारतेन्दु-समग्र’, ‘हिटलर की आत्मकथा’, ‘बेरी जी-कृत प्रकाशन-आत्मकथा’ आदिक पुस्तकें ले लीं थीं। मैंने विनीत होकर कहा, “इनके मूल्य बता दीजिए, जिससे कि भुगतान कर दूँ।” उनका उत्तर था, “मैंने तो तुम्हें कुछ दिया ही नहीं। तुम्हारा नाम बहुत सुना है; तुम अब आये हो, जब मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं है। चार-छ: साल पहले आये होते तो मैं तुम्हें ‘हाथी’ देता।” आप यहाँ शब्दों पर मत जाइए’ ‘भाव’ को समझिए। बेरी जी ने साथ बैठकर स्वल्पाहार किया और भोजन भी। जब मैंने लौटने के लिए अनुमति माँगी थी तब उनका उत्तर था, “भगवान् मेरी कुटिया में आये हैं और अभी चले जायेंगे? आज रहो, कल जाना। तुमसे बातें भी करनी हैं। ये फ़ोन लो और घर बोल दो कि अपने ‘दूसरे घर’ में हूँ; कल आऊँगा।”

कुछ पुस्तकों के लिए योजनाएँ बनीं। आगे चलकर, उन्होंने मेरी २४ पुस्तकें प्रकाशित की थीं। लौटते समय उन्होंने आवागमन के लिए मार्गव्यय बलात् मेरी शर्ट की जेब में डाल दे दिया था।

बिना किसी परिचय के ‘आर्या बुक डीपो’, करोलबाग़, दिल्ली पहुँचा। नाम बताया तब उसके स्वामी (नाम विस्मृत कर रहा हूँ।) अति उत्साह के साथ अपने स्थान से उठ खड़े हुए और बोल पड़े, “अरे देखो! हमारे ‘भगवान्’ आ गये।” मैं अचम्भित रह गया। काजू, किसमिस, बादाम, मिठाई से अपना आतिथ्य सत्कार देखकर मैं अभिभूत रहा। वे ‘रैक’ में लगी मेरी उन पुस्तकों को दिखाने लगे, जो अन्य प्रकाशनों से प्रकाशित हुई थीं और जो विक्रय करने के लिए उनके पास भेजी गयी थीं।

आज, जब ‘वर्तमान’ प्रकाशन-जगत्’ की ओर दृष्टि निक्षेपित करता हूँ तब वैसा लेखक-प्रकाशक-सम्बन्ध ‘स्वप्नवत्’ पाता हूँ। वर्तमान में, समग्र में हम यदि लेखक-प्रकाशक के सम्बन्धों को देखें तो सुस्पष्ट हो जाता है कि अधिकतर प्रकाशक लेखक को ‘निरीह’ के रूप में देखते हैं। वे पुस्तकविक्रेता का आवभगत तो करते हैं; परन्तु वहीं बैठे हुए लेखक को एक गिलास जल तक के लिए नहीं पूछते। सच यह है कि आज देश के जितने स्वनामधन्य प्रकाशक अपनी वैभव-सम्पदा पर इठला रहे हैं, उसमें हम लेखक-वर्ग का योगदान प्रमुख है।

लगभग ४० वर्षों-पूर्व प्रकाशन-जगत् अतीव समृद्ध था; अपेक्षाकृत ईमानदारी बहुत अधिक थी; योग्यता के आधार पर मुद्रण-हेतु पाण्डुलिपियों का चयन किया जाता था; इसके लिए प्राय: प्रकाशकों का सुयोग्य सलाहकार-मण्डल हुआ करता था। ‘रॉयल्टी’ के आधार पर पाण्डुलिपियाँ मुद्रित होती थीं और उचित समय पर रचनाकार के पास उसकी ‘रॉयल्टी’ पहुँचा दी जाती थी। उस समय भी ‘उदार’ प्रकाशक गिने-चुने होते थे। तब पुस्तक का गुणवत्ता के आधार पर क्रय किया जाता था। आज अपनी ‘रॉयल्टी’ लेने के लिए प्रकाशकों को कई बार फ़ोन करने पड़ते हैं।

उसके बाद अनेक शासकीय क्रय-योजनाएँ आयीं, जिन्हें मैं लेखकों, प्रकाशकों तथा क्रय करानेवाले-वालियों अधिकारियों के लिए ‘प्रकाशन-इतिहास का काला सच’ की संज्ञा देता हूँ। उन्हीं दिनों ‘ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड’, ‘वर्ल्ड बुक बैंक’, ‘प्रौढ़ शिक्षा’, ‘कोष्ठक’, ‘रेलवे’, ‘सेना’, ‘राजा राममोहन राय पुस्तकालय’, ‘अनुपूरक’, ‘अनौपचारिक’ आदिक क्रय-योजनाएँ आयीं, जिनमें से अधिकतर प्रकाशकों के काले कारनामों के कारण कालकवलित हो चुकी हैं।

आइए! अब उन काले कारनामों को समझते हैं :——
उक्त में से तीन क्रय-योजनाएँ अतीव चर्चित रही हैं :– १- ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड योजना :— यह बालसाहित्य को उन्नत बनाने के उद्देश्य से आरम्भ की गयी थी। इसके अन्तर्गत प्रकाशित पुस्तकों में से लगभग २५ प्रतिशत पुस्तकें योग्यता के आधार पर प्रकाशित की गयी थीं। इस योजना में
एक-एक पुस्तक की क्रयसंख्या २० से ४० हज़ार रुपयों तक की होती थी। शब्दगंगा को बहा दिया गया था। हर-कोई उस गंगा में हाथ धो लेना चाहता था। अचानक, इलाहाबाद में हज़ारों की संख्या में प्रकाशक पैदा हो गये, जबकि योजना के आने से पूर्व इलाहाबाद में लगभग दस प्रकाशक थे। ऐसे-ऐसे प्रकाशक थे, जो ‘कल’ तक इलाहाबाद की सड़कों पर ‘लण्ठई’ करते घूमते थे और जिनमें बातचीत करने का संस्कार तक नहीं था; अभीष्ट शिक्षा तक नहीं थी, प्रकाशक बनते चले गये। कमोबेश, लखनऊ, दिल्ली की भी यही स्थिति रही। आगे चलकर, ‘वर्ल्ड बुक बैंक’, ‘प्रौढ़शिक्षा’, ‘नव साक्षर’ आदिक क्रय-योजनाओं ने पूरी तरह से बाल, प्रौढ़, नव साक्षरों के लिए लिखी जा रही पाण्डुलिपियों का स्तर विकृत कर दिया था। उन योजनाओं में प्रत्येक राज्य के लिए अलग-अलग क्रय की व्यवस्था थी; फिर क्या था, लम्पट प्रकाशकों के एक समूह ने उचित-अनुचित की चिन्ता किये बिना रिश्वत के बल पर उन प्रकाशकों को बहुत पीछे छोड़ दिया था, जो वंशानुगत प्रकाशन करते आ रहे थे और जिनकी आजीविका का स्रोत मात्र प्रकाशन था। जब कुछ लोग ने देखा कि कुछ भी छपवाकर १०-२० हज़ार की रिश्वत देकर लाखों की कमाई की जा सकती है तब वे भी कूद पड़े। कूदनेवालों में ‘बाइण्डर’, ‘कम्पोजिटर’, ‘स्टेशनरी के दूकानदार’, ‘प्रकाशकों के यहाँ काम करनेवाले’, ‘डिजाइनिंग करनेवाले’, ‘प्रेसमालिक’, ‘पुस्तक-विक्रेता’, ‘पुस्तक-विक्रय एजेंट’, ‘चित्रकार’, ‘लेखक’, ‘नामी-गिरामी साहित्यकार’ आदिक बहती गंगा में डुबकी लगाने लगे। दूसरी ओर, बाल-साहित्य की पुस्तकें लिखनेवालों में आई०ए०एस०-अधिकारियों की बेटी, बेटा, पत्नी, क्रययोजना से जुड़े लोग, उनके परिवारवाले, बाइण्डर के बेटी, बेटा, पत्नी, प्रेसमालिकों के बेटी, बेटा, पत्नी, प्रेस-कर्मचारी, प्रकाशक, उसकी बेटी, बेटे, पत्नी, बाप आदिक रातों-रात लेखक बन गये। वहीं लेखकों का एक ऐसा वर्ग ऐसा पैदा हो गया, जो १५० से ४०० रुपये तक में एक पुस्तक की सामग्री तैयार कर दे देता था। अधिकतर प्रकाशक लेखकों से पाण्डुलिपियाँ ख़रीदकर उक्त लोग के नाम से छपवा लेते थे। ‘प्रौढ़ और नव साक्षर योजनान्तर्गत आरम्भ में कुछ ईमानदारी दिखी; परन्तु ‘लक्ष्मी’ के प्रभाव से तत्कालीन सम्बन्धित सभी आई०ए०एस०-अधिकारी, मुख्य मन्त्री, लिपिक, उनके दामाद ऐसे सम्मोहित हुए कि ‘बालसाहित्य’ को ‘प्रौढ़साहित्य’ बनाकर ख़रीदारी करायी गयी। १६ पृष्ठ की पुस्तकों के मूल्य ४० रुपये तक रखे गये थे। यहाँ तक कि इलाहाबाद और दिल्ली के कुछ प्रकाशकों ने ‘बालसाहित्य’ के नाम पर ‘आपत्तिजनक’ पुस्तकें मुद्रित कराकर ‘रिश्वत’ के बल पर क्रय करायी थीं। यही नहीं, आरम्भ में, जिन पुस्तकों का जो नाम था; लेखक का नाम था; प्रथम संस्करण-वर्ष था; मूल्य था, वे सब बदलकर नये रंगरूप में बेचे गये थे। इतना ही नहीं, इलाहाबाद और दिल्ली के कुछ प्रकाशक इतने नीच हैं; गर्हित हैं; मक्कार हैं, जिन्होंने जलनवश, दूसरे प्रकाशकों की पुस्तकों को ‘क्रयसूची’ से हटवायी थी।

इसका परिणाम यह हुआ कि जब वे सारी अनियमितताएँ सप्रमाण केन्द्र-सरकार और राज्य-सरकारों के पास पहुँचीं तब योजनाएँ समाप्त करनी पड़ीं। उन दिनों लाखों की संख्या में बाल और प्रौढ़पुस्तकें अति तीव्र गति में आयी थीं। चूँकि बेईमानी के सारे खेल थे अत: वे सभी पुस्तकें सार्वजनिक नहीं हो सकी हैं। एक समय ऐसा आया, जब अधिकतर प्रकाशक पाण्डुलिपियों को कम्पोजिंग कराकर, अन्दर की साज-सज्जा तैयार कराकर, आवरणपृष्ठ के साथ पूरी सामग्री की फ़ोटो-प्रति कराकर, क्रययोजनान्तर्गत ‘अवैध’ रूप में जमा करा देते थे और दूसरी ओर, लेखक अपनी पुस्तकों के छपने की बाट जोहता रह जाता था।

अब एक अलग प्रकार की प्रवृत्ति कुछ वर्षों से बेहद जवान हो गयी है। विश्वविद्यालय-स्तर के पुरुष-महिला अध्यापक रुपये लेकर खड़े हैं कि कोई ऐसा प्रकाशक उन्हें मिल जाये, जो उनकी मुद्रित पाण्डुलिपि में ‘आई०एस०बी०एन०’ का ‘ठप्पा’ लगाकर उसे ‘पुस्तक’ का रूप दे सके। उनमें से अधिकतर लेखक ऐसे हैं, जो इधर-उधर से सामग्री लेकर ‘पुस्तक-लेखिका-लेखक’ बन जाते हैं। ऐसे लेखिका-लेखक अपनी पुस्तकों में प्रयुक्त शब्दों की अर्थ-अवधारणा से अनभिज्ञ रहते हैं।

सच तो यह है कि ८०-९० के दशकों में जितनी पुस्तकों की ख़रीदारी होती थी और पठन-पाठन-अध्ययन लोग करते थे, उनकी संख्या में लगभग ८५ प्रतिशत की कमी आ चुकी है। इसके कई कारण हैं :—-
१- आज के अधिकतर लेखकों के लेखन में ‘साहित्य’ के स्थान पर ‘राहित्य’ ने ले लिया है; क्योंकि मौलिक चिन्तन का अभाव दिखता है।
२- लेखकों की पुस्तकों में अध्ययनशीलता का अभाव लक्षित होता है।
३- पुस्तकों के मूल्य में अप्रत्याशित वृद्धि की जा रही है।
निष्कर्ष :– प्रकाशन-जगत् को यदि पाठकप्रियता पानी हो तो वास्तविक लेखक-वर्ग का सम्मान करना होगा; उनके साथ संवाद को बनाये रखना होगा; सामग्री और मुद्रण की गुणवत्ता के साथ समझौता नहीं करना होगा तथा कृत्रिम प्रकाशकों के आधारहीन अस्तित्व को ध्वस्त करना होगा।

(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १७ अगस्त, २०१९ ईसवी)
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