धर्म सड़क पर आ गया, मर्यादा भी भंग

एक–
महाकुम्भ के पर्व पर, भाँति-भाँति के लोग।
कहते ख़ुद को साधु हैँ, सांसारिक है भोग।।
दो–
भौतिकता मे लिप्त हैँ, भस्म लगाये वेश।
कान्ति अलक्षित दिख रही, कहे कहानी केश।।
तीन–
धर्म सड़क पर आ गया, मर्यादा भी भंग।
राजनीति के संग है, गिरगिटिया हर रंग।।
चार–
आँख लिये भी अन्ध हैँ, धर्म न जाने लोग।
दृष्टि-संकुचन दिख रहा, भीतर-बाहर रोग।।
पाँच–
धर्म प्रकट होता नहीँ, मर्यादा है धर्म।
“जड़-चेतन परिवार है, यही धर्म का मर्म।।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १८ जनवरी, २०२५ ईसवी।)