भारतीयता के रंग मे रँगते रहे, भारत कुमार

४ अप्रैल, २०२५ ई० के ब्रह्ममुहूर्त्त मे मुम्बई के कोकिलाबेन धीरूभाई अम्बानी चिकित्सालय मे एक महानायक, जो निर्देशक, अभिनेता, पटकथा-लेखक, सम्पादक, गीतकार आदिक भूमिकाओँ मे जीवन्त रहा करता था, ‘लिवर सिरोसिस’ से जूझते-जूझते, इतना थक चुका था, जीर्ण-शीर्णकाय हो चुका था कि उसकी धड़कन थमकर रह गयी। समय था, प्रात: ३ बजकर ३० मिनट। चिकित्सालय के दरो-दीवारोँ पर ‘उपकार’, ‘पूरब-पश्चिम’, ‘रोटी-कपड़ा और मकान’, ,हिमालय की गोद मे’, ‘क्रान्ति’, नील कमल, अनीता, आदमी इत्यादिक के चलचित्र और प्रभावपूर्ण संवाद टँगने-से लगे थे। चलचित्र-जगत् के क्रान्तिकारी अध्यायोँ के पन्ने फड़फड़ाते-से महसूस हो रहे थे; परन्तु वे सब मौन जगत् के विषय बनकर रह गये।

उस शख़्स की क्रान्तिकारिता उसकी फ़िल्मो तक ही सीमित नहीँ थी, बल्कि वास्तविक जीवन मे भी थी। तब वे ब्रिटिश इण्डिया के अन्तर्गत एबटाबाद मे रहते थे; जन्म भी वहीँ हुआ था। अब वही खैबर पख़्तूनख्वा, पाकिस्तान मे है।

यह कैसी विडम्बना है कि आज़ाद भारत के चिकित्सालय मे उनकी साँस थम गयी और ग़ुलाम भारत के अस्पताल मे भरती कराये गये उनके दो माह के भाई और माँ की हालत बहुत गम्भीर थी। अकस्मात् वहाँ भड़के दंगे के कारण कारण सारी चिकित्सीय व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। अस्पताल के सारे चिकित्सालय, परिचारिकाएँ तथा अन्य कर्मी जान बचाने के लिए भाग खड़ा हुए थे। इधर, उपचार के अभाव मे उनका भाई दम तोड़ चुका था। उनकी माँ भी उसी अस्पताल मे भरती थीँ। उस समय उनकी अवस्था दस वर्ष की थी।

ख़तरे का सायरन बजते ही अस्पताल के सारे कर्मी जान बचाने के लिए दौड़ते-भागते भूमिगत हो जाते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि हरिकृष्ण गिरि गोस्वामी की माँ की हालत गम्भीर होती गयी। वे असह्य दर्द के कारण चीख़ती-चिल्लाती रहीँ, जिसे बेटा बरदाश्त न कर सका। उस क्रुद्ध बालक ने वहीँ पड़ी हुई एक लाठी उठायी और दौड़ पड़ा, भूमिगत स्थल की ओर। वह वहाँ पहुँचकर चिकित्सक, परिचारिकाओँ तथा अन्य कर्मियोँ को पीटने लगा।

अन्तत: हरिकृष्ण के पिता ने अपने परिवार की जीवनरक्षा के लिए पाकिस्तान छोड़ने का निर्णय कर लिया था।

वह परिवार किसी तरह से पाकिस्तान के जांडियाला शेर ख़ान से जान बचाकर दिल्ली पहुँचा था। वहाँ उन्हेँ शरणार्थी-शिविर मे आश्रय मिला। एक समय ऐसा आया, जब उनका पूरा परिवार दिल्ली मे रहने लगा। वहीँ रहकर हरिकृष्ण ने अपनी स्नातक की शिक्षा पूरी की थी। उनका परिवार अत्यन्त अभाव मे जी रहा था। उन्हेँ सबसे पहले नौकरी की सख़्त ज़रूरत थी, ताकि वे परिवार का सम्बल बन सकेँ।

हरिकृष्ण नौकरी की तलाश मे फ़िल्म-स्टुडियो मे चहक़दमी कर रहे थे। प्रतिदिन जाते और हाथ बाँधे लौट आते थे, फिर भी उस बालक ने हार नहीँ मानी। वहाँ एक कर्मी से उन्होँने अपनी मज़्बूरी बतायी थी, जिसने गम्भीरता से लिया। वह व्यक्ति हरिकृष्ण को एक स्टुडियो मे ले गया, जहाँ उन्हेँ शूटिंग की तैयारी मे आवश्यक सामग्री यहाँ से वहाँ ले जाने और वहाँ से यहाँ ले आने का काम सौँपा गया। समय पाँव बढ़ाता रहा। एक दिन उन्हेँ सहायक की भूमिका दी गयी। वर्ष १९४९ मे दिलीपकुमार की फ़िल्म ‘शबनम’ उन्हेँ इतनी रास आयी थी कि उन्होँने उसे कई बार देखा। वे दिलीप कुमार के अभिनय से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होँने ‘दिलीप कुमार’ की शैली मे अपना नाम भी हरिकृष्ण गिरि गोस्वामी के स्थान पर ‘मनोज कुमार’ रख लिया।

मनोज कुमार का व्यक्तित्व आकर्षक था। वे सेट की तैयारी मे जहाँ कहीँ खड़े होते थे और उनकी ओर जब सेट का प्रकाश पड़ता था तब वे किसी नायक से कम नहीँ दिखते थे। उन्हेँ वर्ष १९५७ मे मे प्रसारित फ़िल्म ‘फ़ैशन’ मे एक छोटी-सी भूमिका दी गयी थी, तब उनकी अवस्था १९ वर्ष की थी, जिसमे उन्होँने एक ९० वर्षीय वयोवृद्ध की भूमिका निभायी थी, जिसमे उनकी संक्षिप्त अदाकारी सराही गयी थी। वर्ष १९६० मे उन्हेँ ‘काँच की गुड़िया’ मे मुख्य भूमिका दी गयी थी, जो पूरी तरह से सफल रही। उसके बाद तो उनके आगे-पीछे एक-से-बढ़कर फ़िल्मे दिखने लगीँ। वे रेशमी रुमाल, चाँद, बनारसी ठग, अपने हुए पराये, वो कौन थी, हरियाली और रास्ता, पूरब और पश्चिम, हिमालय की गोद मे, क्रान्ति इत्यादिक फ़िल्मो मे अपनी शानदार भूमिकाओँ से दर्शकोँ के चहेते बनते गये।

मनोज कुमार के रुचि-अनुसार वर्ष १९६५ मे निर्मित ‘शहीद’ फ़िल्म मे उन्हेँ अत्यन्त लोकप्रियता प्राप्त हुई थी, जिसमें वे शहीदे आज़म भगत सिँह की भूमिका मे थे। उसके गीत एक-से-बढ़कर थे। ‘मेरा रंग दे बसन्ती चोला’, ‘सरफ़रोशी की तमन्ना’, ‘ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी क़सम’ इत्यादिक गीतोँ के बोल ने दर्शकोँ को मन्त्रमुग्ध कर दिया था। तत्कालीन प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री उस फ़िल्म से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होँने मनोज कुमार को बुलवाकर उनसे अपने द्वारा उद्घोषित नारा “जय जवान-जय किसान” पर फ़िल्म-निर्माण करने के लिए कहा था, जिसे स्वीकार करते हुए, मनोज कुमार ने ‘उपकार’ (वर्ष १९६७) का निर्देशन किया था। यह वही फ़िल्म थी, जिसने मनोज कुमार को ‘भारत कुमार’ का नाम दिया था। उसका अमर गीत ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती’ देशभक्तिपूर्ण फ़िल्मो मे शीर्ष पर है। मनोज कुमार को अफ़्सोस रहा कि जिस लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर उन्होँने ‘उपकार’ फ़िल्म का निर्देशन किया था, उसे देखने के लिए शास्त्री जी जीवित नहीँ थे।

उसके बाद से मनोज कुमार ने पीछे पलटकर नहीँ देखा। फ़िल्म-उद्योग-जगत् मे उनके द्वारा हस्ताक्षरित की गयी फ़िल्मे दीर्घ काल तक दर्शकोँ की ज़बाँ पर बनी रहेँगी। हमारी यही भावांजलि भारत कुमार को अमरत्व के शिखर पर समासीन करती है।

मनोज कुमार आभूषित होते रहे पुरस्कार-सम्मानो से।

◆ फ़िल्मफेयर एवार्ड– उत्कृष्ट अभिनेता– वर्ष १९७३ (फ़िल्म– बेईमान)
◆ दादा साहेब फाल्के एवार्ड– वर्ष २०१६
◆ फ़िल्म फेयर लाइव एचीवमेण्ट एवार्ड– वर्ष १९९९
◆ फ़िल्म फेयर एवार्ड– उत्कृष्ट निर्देशक– वर्ष १९६८ और १९७५ (फ़िल्म– रोटी-कपड़ा और मकान; उपकार)
◆ पद्मश्री सम्मान– वर्ष १९९२
◆ फ़िल्म फेयर एवार्ड– उत्कृष्ट संवाद-लेखक– वर्ष १९६८ (फ़िल्म– उपकार)
◆ फ़िल्म फेयर एवार्ड– उत्कृष्ट कहानी-लेखक– वर्ष १९६८ (फ़िल्म– उपकार)
◆ फ़िल्म फेयर एवार्ड– उत्कृष्ट सम्पादक– वर्ष १९७३ (फ़िल्म– शोर)
◆ नेशनल फ़िल्म एवार्ड– द्वितीय सर्वोत्तम वृत्तचित्र– वर्ष १९६८ (फ़िल्म– उपकार)
◆ स्टार स्क्रीन लाइफ़टाइम एचीवमेण्ट एवार्ड– वर्ष २००८

◆ गिल्ड एवार्ड लाइफटाइम एचीवमेण्ट– वर्ष २०१२

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