शब्दशक्ति की विडम्बना

मनुष्य ‘मनुष्यता’ की बात तो करता है; किन्तु अपने भीतर की शुष्क मानवीय संवेदना पर दृष्टिपात करने मे क्षम (‘सक्षम’ अशुद्ध है।) नहीँ रहता। यही कारण है कि उसके उपदेश निर्दिष्ट लक्ष्य का वेधन नहीँ कर पाते और विषय-वस्तु की गम्भीरता का अवसान हो जाता है; वैचारिक क्रान्ति की उष्मा ठण्ढी पड़ जाती है और उपदेशक का अन्तर्मन उसे कोसता रह जाता है।

यही कारण है कि विचारजीवी और बुद्धिजीवी-वर्गोँ के शब्द समाज तक पहुँचते-पहुँचते, थक चुके रहते हैँ; क्योँकि ‘शब्दसंधान’ करने के लिए आचरण मे शुचिता और ज्ञान, बुद्धि, विवेक का होना अनिवार्य है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३० अप्रैल, २०२५ ईसवी।)