राघवेन्द्र कुमार राघव–
कृष्ण! निर्मोही है,
इसीलिए कृष्ण से
मोह हो जाता है।
कृष्ण! प्रेम की
प्रवहमान सरिता है।
जिसमे जड़ और चेतन
सब बह जाता है।
व्याकुल कंठों की चाह है कृष्ण।
प्रेम और आनंद की राह है कृष्ण।
किन्तु हर नदी की
एक ही नियति है।
उसे बहते जाना है।
यात्रा उसका धर्म है
सबके हृदय मे उसे रहना है।
तृषित हृदय की तृष्णा
हरने वाला है कृष्ण!
कर्म को धर्म समझाने वाला है कृष्ण!
जैसे पावन सरिता
सब जग अभिसिञ्चित करती है।
वैसा ही घटित होता है
कृष्ण के साथ भी।
सर्व-कल्याण के लिये वो
अपने प्रिय को छोड़ देते हैं।
किन्तु भूलते नहीं एक क्षण के लिए
छोड़ने के बाद भी।
कृष्ण से वियोग भी
सन्न्यास है आराधना है।
ये साकार से निराकार की ओर
गमन है।
कृष्ण-भक्ति भौतिकता से
सात्विकता की यात्रा है।
कृष्ण-प्रेम की सरिता मे डूबे
तो हर स्थान वृन्दावन है।