● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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राम!
तू राम नहीं, ‘मरा’ है।
भूल जा!
‘मरा-मरा’ कहनेवाले
कभी ‘राममय’ हो जाया करते थे,
तब ‘सच्चरित्र’ होता था;
होती थी, ‘सदाचरण’ की सभ्यता
और होती थी, धर्म के मर्म की समझ।
तेरा नायकत्व,
प्रतिनायकत्व का रूप ले चुका है।
तूने अधिनायकत्व के रंग मे स्वयं को रँग लिया है;
रावणी सेना तेरा जय-जयकार करती आ रही है।
तेरे लक्ष्मण और भरत
एक-दूसरे के रक्त-पिपासु हैं।
दोनो बाट जोह रहे हैं,
तेरे एक अन्तहीन वनवास की।
ऊर्मिला, माण्डवी और श्रुतिकीर्ति को
सीता फूटी आँखों सुहा नहीं रही है।
राम!
मत भूल–
यह त्रेतायुग नहीं,
कलियुग है।
तू आसक्त है; अशक्त है और निशक्त भी।
तू कैसा जगन्नियन्ता रे!
जड़-चेतन को जीवन्त करने का भ्रम अब छोड़।
कलियुग मे तू निर्जीव है
तभी तो एक अदना-सा व्यक्ति भी–
तुझमे प्राण-प्रतिष्ठापन करने का हुंकार भरता आया है।
तुझमे साहस नहीं प्रतिकार करने की;
क्रीतदास का जीवन कब तक जीता रहेगा?
तेरा अस्तित्व,
तुझसे छिटककर प्रश्न कर रहा है–
तू सामान्य पाषाण-पार्थिव मूर्ति और प्रतिमा तक
सिमटकर कब तक रहेगा?
लक्ष्मण ‘वर्ज्य-रेखा’ खींचने की जगह,
रावण का ‘माया-मृग’ बन चुका है।
रावण,
सीता का जाने कितनी बार अपहरण करता आ रहा है;
शरीर नोच-नोचकर खाता आ रहा है;
तू ‘बेचारा-सा’ बनकर रह जाता है?
हर रोज़ तुझ पर पद-प्रहार कर,
भरत अपनी सत्ता-सीमा का
विस्तार करता आ रहा है;
राम!
तूने भी लक्ष्मण और भरत को,
अन्याय का स्वाद चखाया है;
तू भी
इस न्यायालय से उस न्यायालय तक
एड़िया घिसटता रह जाता है।
तेरे भीतर के भ्रम को पूजनेवाले,
तुझे नख-शिख विषैली आँखों मे उतार चुके हैं।
वे जानते हैं–
तू सचमुच मे है नहीं;
पर तुझे जिलाये रखने के लिए,
मृग-मरीचिका-सा मायाजाल–
बिछाये रखना भी ज़रूरी है।
हथेलियों मे आँखें लिये अन्धे,
तुझे धर्म के रस्सों से बाँधकर
अपनी रीढ़हीन पीठें ठोंकवाते आ रहे हैं।
चतुर मूर्खों की गिरगिटिया चाल,
देश की एक आबादी को
आज ‘गिरमिटिया मज़्दूर’ बना चुकी है,
जिनका कभी स्वतन्त्र अस्तित्व रहा ही नहीं।
हर की आँखों मे एक ही नम्बर का चश्मा है;
वे वही देख पाते हैं, जो उन्हें दिखाया जाता है।
राम!
पत्थर और मिट्टी की मूर्तियाँ
तेरे नाम और रूप को बहलाती आ रही हैं।
“भेड़ियाधँसान” की अवधारणा से
तू परिचित है न?
भीड़,
तेरे नाम के आकर्षण मे
मदान्ध होती जा रही है।
राम!
तेरे गले मे जो हार पहनाये जा रहे हैं,
वे तेरी ‘हार’ को सिद्ध करते आ रहे हैं;
क्योंकि तुझे हारे हुए जुआड़ी,
तुझे हारे हुए ‘हार’ पहनाते आ रहे हैं
और तू!
मुदित मन से
कुण्ठित-लुण्ठित चरित्र का
अनुमोदन करता आ रहा है?
तेरे नाम की आड़ मे
हर दिन, हर पल, हर घड़ी
आक्रामक नारे–
सात्त्विक वातावरण को तामसी रूप देते आ रहे हैं।
तेरे नाम के नारे लगा-लगा,
उस सच को मारने की नाकाम कोशिश की जा रही है,
जहाँ से क्रान्ति-जयघोष प्रतिपल निनादित हो रहा है :–
अहंकार की प्राण-प्रतिष्ठा की जा रही है;
हर भारतवासी के गले मे,
विदेशी क़र्ज़ का फन्दा लटक रहा है;
देश को धर्म-जाति-वर्ग मे बाँटा जा रहा है;
संविधान का ज़नाज़: निकाला जा रहा है;
ग़रीब और ग़रीब होता जा रहा है;
अमीर की चमड़ी और मोटी होती जा रही है।
एक वर्ग-विशेष को,
बिना श्रम के मुफ़्त मे–
सुविधा-साधन देकर
पंगु बनाया जा रहा है।
कुपोषण, अशिक्षा, बेरोज़गारी
सिर चढ़कर बोल रही हैं;
महँगाई, रिश्वतख़ोरी, अपहरण का बाज़ार गरम है;
हत्या, चोरी, डक़ैती तथा बलात्कार का खुला खेल
हर चौराहे, तिराहे, दोराहे सुनाते आ रहे हैं।
राम!
तेरा किरदार
ख़रीद-फ़रोख़्त के बाज़ार मे उतार दिया गया है।
तू,
प्रतिवर्ष देश की हर रामलीला मे
कृत्रिम रावण को मारता आ रहा है;
पर मार नहीं पाता;
तेरा चरित्र भी तो स्वाभाविक नहीं।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २२ जनवरी, २०२४ ईसवी।)
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