सोचता हूँ आज कुछ लिखूँ!

सोचता हूँ आज कुछ लिखूं,
पर क्या लिखूं?
दर्द, प्रेम, गरीबी ,बीमारी या भूख !
या लिखूं दो वो सपना जिसे मेरे पिता देखते हैं ,
मेरे इलाहाबाद में मौजूद होने पर ।
या लिख दूँ भूखे कामगारों के शोषण की कहानी,
जो देश (गाँव) से परदेस तक व्याप्त है ।
या लिख दूँ ग़रीबी का कफ़न ओढ़े
उन बाल मजदूरों की कहानी,
जिनकी सुबह पंचर की दुकान से शुरू होती है
और रात किसी पान की गिमटी में गुजर जाती है ।
या लिख दूँ उन दलित, आदिवासी लड़कियों की कहानी ,
जिनकी बालात्कार के बाद ,
जबान काट ली जाती है ।
आँखें निकाल ली जाती हैं
या जिंदा दफ़्न कर दिया जाता है,
या लिख दूँ इज्ज़त से लाचार बूढ़े मां-बाप की कहानी,
जिनकी कोई इज्ज़त नहीं ।
या लिख दूँ उन छात्रों की कहानी,
जिनकी आँखों में उनके ही सपने दफ़्न हो जाते हैं ।
या लिख दूँ उन सूदखोरों की कहानी ,
जिन्होंने हमें आज तक गुलाम बना रखा है ,
या लिख दूँ उस गुलामी की कहानी,
जो दिखती नहीं,
बस नज़रे झुका कर स्वीकार की जाती है ,
या लिख कर बता दूं न
सच्चे सीधे गांववासियों को
सरकार के विज्ञापन की नीतियाँ,
जो लोक का ही खून चूस कर
जोंक की तरह मोटी होती जा रही है ।
हमारा ही सब कुछ ले कर
हमारी ही पीठ पर ग़रीबी की
मुहर लगाती जा रही है ।
या ये लिख दूँ कि हम कब समझेंगे
अपने शोषण की कहानी,
हम कब लड़ेंगे लड़ाई
कब होगी जीत ग़रीबी पर ?

कवि गोंड
इलाहाबाद विश्वविद्यालय