वह खेल ही क्या, जिसमे हमारी जीत न हो

एक–
तक़दीर लिखने का हुनर हमे है मालूम,
सलाहीयत पर यक़ीँ करने को फ़ुर्सत ही नहीँ।
दो–
हम वो खिलाड़ी हैँ, जो हारना नहीँ जानेँ,
वह खेल ही क्या, जिसमे हमारी जीत न हो।
तीन–
हमारा हक़ ज़माने ने, कभी दिया ही नहीँ,
हमेशा हाथ बढ़ते रहे, छिनने के लिए।
चार–
वह जो ईँट की दीवार, टकटकी लगाये देख रही,
माशूका है नफ़्रत की, नज़रेँ बचा लो तुम।
पाँच–
आँधी मे भी हम दीप जलाये रखते हैँ,
ग़र हौसला हो तो एक फूँक मारकर देखो।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३० सितम्बर, २०२४ ईसवी)