राम भारत की आत्मा हैं

राम भारत की आत्मा हैं, प्रभु श्रीराम पूर्ण परात्पर ब्रह्म हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का त्याग, शील-संयम और लोकोत्तर चरित्र सभी के लिए ग्राह्य है। जो मानो कल्पवृक्षों के बगीचे हैं तथा समस्त आपत्तियों का अंत करने वाले हैं जो तीनों लोकों में परम सुंदर हैं वे श्रीमान् राम हमारे प्रभु हैं। आप्तकाम, पूर्ण काम, निष्काम प्रभु श्रीराम के सद्गुणों के अनुशीलन का अर्थ मनुजता को सार्थक करने से है। प्रभु श्रीराम शाश्वत आह्लाद के प्रतीक हैं और भारत की भोर का प्रथम स्वर हैं। राम का अर्थ है ‘प्रकाश’। किरण एवं आभा (कांति) जैसे शब्दों के मूल में राम है। ‘रा’ का अर्थ है आभा और ‘म’ का अर्थ है मैं; मेरा और मैं स्वयं। राम का अर्थ है मेरे भीतर प्रकाश, मेरे हृदय में प्रकाश। राम शब्द संस्कृत के रम् से बना है। रम् का अर्थ है रमना या समा जाना। इस तरह राम का अर्थ है सकल ब्रह्मांड में निहित या रमा हुआ तत्व यानी चराचर में विराजमान स्वयं ब्रह्म। शास्त्रों में लिखा है, “रमन्ते योगिनः अस्मिन सा रामं उच्यते” अर्थात, योगी ध्यान में जिस शून्य में रमते हैं उसे राम कहते हैं।

रामनिराकार, निर्गुण, अजन्मा, अनंत, निरंतर, असीम, सर्वव्यापी है। हालाँकि राम का अनुभव हम सब ने किया होता है लेकिन कितने लोग हैं, जो उस अनुभव को पहचानकर, वहाँ स्थित हो पाते हैं। राम परमचेतना का, ईश्वर का नाम है। जो हर मनुष्य के अंदर उसके हृदय में निवास करता है। मानवशरीर ‘दशरथ’ है। अर्थात दस इंद्रियाँ रूपी अश्वों का रथ। इस रथ के दस अश्व हैं – दो कान, दो आँखें, एक नाक, एक जुबान, एक (संपूर्ण) त्वचा, एक मन, एक बुद्घि और एक प्राण। इस दशरथ का सारथी है – ‘राम’। राम इंद्रियों का सूरज है। उसी के तेज से शरीर और उसकी इंद्रियाँ चल रही हैं। जब शरीर रूपी रथ पर चेतना रूपी राम आरूढ़ होकर इस का संचालन अपने हाथों में लेते हैं तभी वह सजीव होकर अभिव्यक्ति करता है। शरीर दथरथ है तो सारथी राम, शरीर शव है तो शिव (चेतना) राम…। राम से वियोग होते ही दशरथ का अस्तित्त्व समाप्त हो जाता है। इन दोनों का मिलन ही अनुभव और अभिव्यक्ति का, जड़ और चेतना का, परा और प्रकृति का मिलन है। अपने सारथी राम के बिना दशरथ उद्देश्यहीन है और दशरथ के बिना राम अभिव्यक्ति विहीन।

जीवन की सिद्धि प्रायः पुरुषार्थ से ही सम्भव है, और अज्ञानजन्य विकारों से मुक्ति बड़ा पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ के अनेक रूप एवं प्रकार हैं, किन्तु विद्वतजनों ने आत्म-कल्याणकारी भगवदीय पथ का अनुसरण करके हुए मोक्ष को उपलब्ध होने को ही यथार्थ पुरुषार्थ माना है। अज्ञान का एक दुष्प्रभाव यह भी है कि हम किसी एक ही पदार्थ, व्यक्ति, वस्तु और दृश्य के प्रति आसक्त हो जाते हैं। अज्ञान के वशीभूत होकर ही तो हम देह को सत्य माने बैठे हैं। जबकि सत्य यह है कि देह सहित भौतिक जगत के समस्त वस्तु पदार्थ परिवर्तनशील हैं। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि सत्य वह है जो बदलता नहीं है। जो तीनों कालों में एक जैसा है – वह सत्य है। अतः जीवन सिद्धि हेतु सत्यनिष्ठ रहें ।