● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
मुँह मारनेवाले मौक़ापरस्त
मुँह का ढक्कन योँ खोले रखते हैँ,
मानो हर सड़क और गली मे–
लावारिस-से अड़े-पड़े-खड़े-औँधे पड़े
बजबजाते ‘सीवर’ होँ।
उन्हेँ गिरने की चिन्ता नहीँ रहती;
वे मौक़ा टटोलते रहते हैँ;
गिराकर मुँह मारने मे दक्ष हैँ।
होँठ और जीभ घिस चुकी रहती हैँ;
वैचारिक आँखेँ भीतर तक धँसी रहती हैँ।
भाव और संवेदना–
सूखकर खटाई बन चुकी हैँ।
ऐसा प्रतीत होता है, मानो
चिन्ता और चिन्तन,
राजनीतिक ‘डबल इंजिन-सा’ दिखता
लातमार घोड़ा के रूप मे
बदबूदार अस्तबल मे
पाँव उठा-उठा आक्रोशी स्वर मे
हिनहिनाते हुए,
असंसदीय उत्तेजना फैला रहा हो।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ७ सितम्बर, २०२४ ईसवी।)