दाँत चियारिए, आप ‘लखनऊ’ मे हैं

एक यात्रा-संस्मरण

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

जनाब! लखनऊ भी एक शहर है, जो दिल्ली की तरह आलम (सबसे अधिक जाननेवाला) मे इन्तिख़ाब (बहुतों मे से कुछ को छाँट लेना) तो नहीं; लेकिन अपनी तहज़ीबी सक़ाफ़ती (शिष्टाचारपूर्ण बुद्धिमत्ता) और तवारीख़ी (ऐतिहासिक) ख़ुसूसियत (विशेषता) के बिना (आधार) पर एक इम्तियाज़ी मक़ाम (विशेष स्थान) रखता है। शाइरों (‘शायर’ अशुद्ध है।) ने इसी बिना पर न जाने कितने शेरो शाइरी कर, लखनऊ को एक दीगर (अन्य) बलन्दी (‘बुलन्दी’ अशुद्ध है।) दी है। तभी तो बिस्मिल बोल पड़ते हैं :–
“किया तबाह तो दिल्ली ने भी बहुत ‘बिस्मिल’;
मगर ख़ुदा की क़सम लखनऊ ने लूट लिया।”

अब ग़ौर फर्मायें, हक़ीक़त पर।

इसी हफ़्ते चार दिनो के लिए लखनऊ-दौरे पर रहा और वहाँ की सड़कों और गलियों से दो-चार होता रहा। चारबाग़ मेट्रो स्टेशन के नज़्दीक (‘नज़दीक’ अशुद्ध है।) गन्दगी की भरमार देखकर वह सूक्ति आँखों के सामने घूमने लगी; आँखों को लजाने लगीं; शब्द भी ज़बाँ पर आ ठहरे, “मुसकराइए, (‘मुस्कुराइए’ अशुद्ध है।) आप लखनऊ मे हैं”; मगर मनपरिवर्त्तन होते ही शब्द विपक्ष के पाले मे कसकर पालथी मारकर बैठ गये और उच्चारने लगे― “दाँत चियारिए, आप ‘लखनऊ’ मे हैं।”

बेशक, आज भी लखनऊ अदब और तहज़ीब के लिए मश्हूर (‘मशहूर’ अशुद्ध है।) है; मगर महज़ सरकारी फ़ाइलों मे क़ैद काग़ज़ात पर। हक़ीक़त मे अब ऐसा कुछ भी नहीं है। कभी अवध की आबो-हवा मे नज़ाकत (कोमलता), नफ़ासत (निर्मलता) तथा शराफ़त पींगें मारा करती थीं; हाट-बाट और ठाट-बाट के चर्चे और पर्चे आम किये जाते थे; “पहले आप-पहले आप” की लखनवी तहज़ीब/ शाइस्तगी (शिष्टता) मन को मोह लेती थी। यही वे वज़ाहत (‘वज़्ह’ का बहुवचन) मुसकराने के हुआ करते थे, जो अब महज़ ख़यालात (‘ख़्यालात’ अशुद्ध है।) बनकर रह गये हैं।

मेरा शरीर और दिलो दिमाग़ चारबाग़ से सिंगारनगर, अमौसी हवाई अड्डा, इन्दिरानगर आदिक नगरों का परिक्रमा मेट्रो वाहन से करता रहा; चारबाग़ से बन्थरा रोड, नया लखनऊ से पुराना लखनऊ, बिजनौर रोड, सी० आर० पी० एफ० रोड, हज़रतगंज, गोमतीनगर, हनीमैन चौराहा, विराजनगर और न जाने आवारगी मे कहाँ-कहाँ क़दम बढ़ते रहे; मगर अफ़्सोस! मेहमाननवाज़ी की बेनज़ीर (अप्रतिम) तस्वीर बदरंगियों के धुन्ध मे पड़ी रही। वे गलियाँ, जहाँ से कभी लज़ीज़ व्यंजन की उठती ख़ुशबू चटकारे (‘चटखारे’ ग़लत शब्द है।) लेने के लिए बेशर्म जीभ को मज़्बूर कर दिया करती थी; अमीनाबाद की कुल्फ़ी, चौक की लस्सी, टुण्डे का कबाब, शाही कोरमा, शीरमाल-जैसे व्यंजन दिलो दिमाग़ मे हर पल छाये रहते थे, अब वे सब अपने जाने-पहचाने वुजूद मे नहीं दिखते। अब फ़क़त (केवल) बाज़ार की बदबू ज़ेह्न (‘जहन’ और ‘जेहन’ अशुद्ध हैं।) मे भर उठती है। आँखें फाड़-फाड़कर देखने पर भी पुराने लखनऊ की शान ‘इक्के और ताँगे’ जाने इधर से किधर गुम हो चुके हैं, कारण सड़कें भी उनसे मुँह मोड़ चुकी हैं। यातायात की गहमा-गहमी, धक्कम-धक्के देख-देखकर घोड़े भी थक चुके हैं। मुँह मे पान की गिलौरी और ‘अरे मियाँ!’ कहकर मुख़ातिब होने का लाजवाब अन्दाज़ और पर्दे के भीतर से हौले-हौले झाँकनेवाली पाक़ीज़गी (पवित्रता) हवा-हवा हो चुकी हैं।

हर इंसान अपनी ज़िन्दगी मे उठते सवालात से इस तरह परेशाँ और हैराँ है कि उसे लखनऊ की मुग़लकालीन इमारतों से कोई बावस्ता (सरोकार) नहीं; आते भी हैं तो दूर-दराज़ के लोग, महज़ तस्वीर बन जाने के लिए; छुए-अनछुए इतिहास के पन्नो को पलटने के लिए नहीं। ‘बड़ा इमामबाड़ा’, ‘छोटा इमामबाड़ा’, ‘मोती महल’, ‘भूलभुलैया’, ‘रेजीडेंसी’, ‘घण्टाघर’, ‘जामा मस्जिद’, दादा मियाँ की दरगाह’, चिड़ियाघर’, ‘गड़बड़झाला बाज़ार’, ‘रूमी दरवाज़ा’, ‘सतखण्डा पैलेस’ आदिक ऐसे ऐतिहासिक स्थान हैं, जिनकी जानकारी ज़ेह्न मे तारी (छायी हुई) होती रहनी चाहिए; मगर जब मक़्सद तफ़रीह की हो तब इतिहास के पन्ने सिकुड़कर आलमारी और रैक के विषय बनकर रह जाते हैं।

ताइफ़:/ताइफ़ा (‘तवाइफ़’ का बहुवचन) के पाँवों से छनकते घुँघरू कभी तहज़ीब सिखाने मे मशरूफ़ (व्यस्त) रहा करते थे। यही वज़्ह थी कि मुग़लकालीन बादशाह अपने शहज़ादों को तहज़ीब सिखाने के लिए ताइफ़ा के कोठों पर भेजा करते थे। हमारे मौसिक़ी (संगीत) के घरानो ने एक-से-बढ़कर-एक फ़नकार दिये थे। लच्छू महाराज, बिरजू महाराज, अच्छन महाराज तथा शम्भू महाराज लखनऊ-घराने की शान मे चार चाँद लगाते रहे। ‘भातखण्डे’ मे घुँघरुओं की रुनझुन सुनी जा सकती है; परन्तु वह आवाज़ मज़्बूरीवश है; पेट की ख़ातिर ही है; ख़ुद को दिखाने और जताने की प्रवृत्तिमात्र है।

लखनऊ की सरज़मीँ मे अपने फ़न के लिए अली रज़ा, नौशाद, मज़रुह सुलतानपुरी, कैफ़ी आज़मी, जावेद अख़्तर, वज़ाहत मिर्ज़ा (फ़िल्म ‘मदर इण्डिया’ और ‘गंगाजमुना’ के कहानीकार), अली सरदार ज़ाफ़री, अमृतलाल नागर, डॉ० अचला नागर (फ़िल्म ‘निक़ाह’ और ‘बाग़बान’ की कहानीकार), के० पी० सक्सेना (फ़िल्म ‘लगान’ के कहानीकार) आदिक नाम जाने जाते रहे। अफ़्सोस है! लखनऊ मे रहकर पढ़ाई-लिखाई करनेवाले लोग का भी उनसे कोई ख़ास सरोकार नहीं रहा; बहुतायत मे ऐसे लोग भी थे, जिनका आम तअल्लुक़ात (‘ताल्लुक़ और तालुक़ात’ अशुद्ध हैं; ‘तअल्लुक़ात’ ‘ताअल्लुक़’ का बहुवचन-शब्द है।) तक नज़र नहीं आता था।

नवाबों के समय लखनऊ मे ख़्याल, दादरा, ठुमरी, कथक (‘कत्थक’ अशुद्ध है।) ग़ज़ल, क़व्वाली, शेरो-शाइरी (‘शायरी’ अशुद्ध है।)-जैसी गायिकी परवान चढ़ा करती थी; अब वहाँ वीरानी-मुरदानी-बेरौनकी छायी हुई है।
आप लखनऊ मे ख़ुर्दबीन (दूरदर्शी यन्त्र) लेकर पहुँच आइए और इस छोर से उस छोर तक आँखें जमाये रहिए, इस उम्मीद मे कि नवाबों की ज़िन्दगी जीने का अस्ली सलीक़ा कहीं तो दिख जाये, हर सू (प्रत्येक ओर) नाकामयाबी ही पसरी नज़र आयेगी।

लखनवी चिकन के कपड़े इस छोर से उस छोर तक दुकानो के बाहर-भीतर यों मुँह लटकाये दिखते रहते हैं, मानो उन पर कोई भी मेहरबानी करना गुनाह समझता हो। किसी के पास इतनी फ़ुर्सत तक नहीं कि उसको टो कर उसका हालचाल ले सके।

हैरानी तब होती है जब सैलानी चारबाग़ रेलस्टेशन (‘रेलवेस्टेशन’ अशुद्ध है।) से बाहर आता है; परन्तु ‘राजस्थानी’ और ‘मुग़ल-शैलियों’ मे निर्मित उस स्टेशन की वास्तुकला/स्थापत्यकला की भव्यता को निहार नहीं पाता। ऐसे बहुत लोग हैं, जो चारबाग़ रेलस्टेशन को महज़ ‘रेलस्टेशन’ के नज़रिया से देखकर आगे खिसक लिया करते हैं।

जनाब! भाग-दौड़, रेलम-पेल की ज़िन्दगी मे इन्सान अपने घर तक ख़ैरियत के साथ पहुँचता रहे, यही काफ़ी है।

लखनऊ को ‘अलविदा’ कहता ‘इलाहाबादी’ अन्दाज़ मे हमने भी कुछ रच डाला :–
“अपनो की तलाश मे निकला था लखनऊ।
बारीक़ी से देखा, फिसलते सब नज़र आये।”

(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २३ मई, २०२३ ईसवी।)