कानपुर-प्रवास की अवधि मे मेरे समय का सदुपयोग होता रहा। विगत २४ अक्तूबर को दैनिक जागरण के राष्ट्रीय सम्पादक विष्णुप्रकाश त्रिपाठी जी के सौजन्य से दैनिक जागरण, कानपुर-कार्यालय के एक सभागार मे समाचारपत्रोँ मे व्यवहृत शब्दोँ के विषय मे एक प्रभावकारी कर्मशाला का आयोजन किया गया था, जिसमे वहाँ के सम्पादक जितेन्द्र शुक्ल जी की अभिरुचि और उनकी सीखने-सिखाने के प्रति बलवती इच्छा रेखांकित हुई थी।
कानपुर के ‘बार एसोसिएशन’ के चुनाव के कारण मेरे प्रवास-स्थल के समीप-स्थित कचहरी होने के कारण गमनागमन का मार्ग अवरुद्ध रहा, जिसके कारण दैनिक जागरण-कार्यालय का वाहन कुछ दूरी पर रहा तथा कर्मशाला के लिए जो समय (अपराह्ण चार बजे) नियत था, उस समय पर हम दैनिक जागरण-कार्यालय नहीँ पहुँच सके थे। हम लगभग एक घण्टा विलम्ब मे (‘विलम्ब से’ अशुद्ध है।) पहुँचे। मुझे लेने के लिए ‘उच्चशिक्षा-बीट’ देखनेवाले पत्रकार अखिलेश जी थे, जिनमे सीखने और जानने की प्रवृत्ति अत्यधिक थी, जिसे समझकर मुझे अतीव प्रसन्नता हुई थी। हम गंतव्य की दूरी तय/तै करते रहे और पत्रकारिता मे प्रयुक्त किये जानेवाले शब्दप्रयोग की शुचिता पर भी चर्चा करते रहे।
अन्तत:, हम वहाँ पहुँचे, जहाँ पहले से ही लगभग पचास पत्रकार शालीनता के साथ बैठे हुए थे, जिनका स्थानीय सम्पादक जितेन्द्र शुक्ल जी कुशल नेतृत्व कर रहे थे। उस आयोजन-कक्ष मे एक श्वेतपट्ट था और दो मार्कर भी थे। यह एक सुस्पष्ट संकेत था कि वहाँ के सभी पत्रकार सीखने और जानने के प्रति उत्सुक थे। यही एक कुशल पत्रकार की विशेषता होती है।
मैने मार्कर उठाया और आयोजनकक्ष मे बैठे पत्रकारोँ को सम्बोधित करने लगा। मैने एक ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दिया था कि लगभग सारे पत्रकार प्रश्न-प्रतिप्रश्न करते हुए दृष्टिगत हो रहे थे, जोकि शब्दप्रयोगशुचिता की दृष्टि से एक शुभ लक्षण था। एक-एक शब्द का प्रयोग कारणसहित बताते हुए, सबको संतुष्ट कर पाना, सहज नहीँ होता; परन्तु मैने जब तक शब्दप्रयोग की सार्थकता के प्रति पत्रकारोँ की संतुष्टि नहीँ होती थी तब तक उन्हेँ बताकर, लिखकर, लिखाकर समझाता रहा, फिर अगले शब्द पर चर्चा करता था। बीच मे जैसे ही कोई पत्रकार अन्य प्रश्न को लेकर बढ़ता था, सम्पादक जितेन्द्र जी यह कहकर तत्काल रोक देते थे, ”पहले बताये गये शब्द-प्रयोग को अच्छी तरह से समझ लो, फिर अगले शब्द की ओर बढ़ो।” यह एक अनुकरणीय अनुशासन था।
हमने शुद्धाशुद्ध शब्दप्रयोग के क्रम मे ‘पाठ्येत्तर- पाठ्येतर’, ‘शिक्षणेत्तर-शिक्षणेतर’, ‘पंचतत्त्व-पंचतत्त्वोँ’, ‘बढ़ोत्तरी-बढ़ोतरी’, ‘गृहिणी-गृहणी-ग्रहिणी’, ‘दीया-दिया’, ‘अन्तरराष्ट्रीय- अन्तर्राष्ट्रीय’, ‘अन्तर्देशीय’, ‘प्रज्ज्वलन- प्रज्जवलन-प्रज्वलन’, ‘प्रज्वलित-प्रज्ज्वलित-प्रज्जवलित’ ‘दो दिन-दो दिनो’, ‘दो वर्ष-दो वर्षोँ , ‘सप्ताह-सप्ताहोँ’, ‘शतक-शतकोँ’, ‘दशक-दशकोँ’, ‘शताब्दी-शताब्दियोँ, ‘सर्जन-सृजन’, ‘विसृजन-विसर्जन’, ‘उज्वल-उज्जवल- उज्ज्वल’, ‘शत-शत-शत्-शत्’, ‘प्रतिशत’, ‘डाक्टर-डॉक्टर’, ‘कॉपी-कापी’, ‘कॉफ़ी-काफ़ी’, ‘माल-मॉल’, ‘ला-लॉ’, ‘मिष्ठान-मिष्ठान्न-मिष्टान्न’, ‘मिठाई’, ‘मँहगाई-महँगाई’, ‘गया-गयी-गये-गया-गई-गए’, ‘अधिगृहीत-अधिग्रहित- अधिग्रहीत’, ‘संग्रहित-संगृहीत- संग्रहीत’, ‘प्रावधान- प्रविधान’, ‘परीक्षा-परिक्षा’, ‘व्यंग-व्यंग्य’, जयन्ती- जन्मतिथि’, ‘लिए-लिये’ इत्यादिक शताधिक शब्दप्रयोग के औचित्य-अनौचित्य पर मुक्त भाव से चर्चा की थी; शब्दविवेचन एवं शब्दविश्लेषण किये थे। उनमे से कौन-सा शुद्ध है और क्योँ, इसे लिखकर-लिखाकर बताया और समझाया था। इनके अतिरिक्त अनुस्वार- अनुनासिक-प्रयोग, संधि, उपसर्ग, धातु, प्रत्यय आदिक के प्रयोग से शब्द कैसे रूप बदल लेते हैँ, इनका सरलीकरण करते हुए समझाया था।
एक शब्द ‘जयन्ती मनायी जायेगी’ वा ‘जन्मतिथि के अवसर पर जयन्ती मनायी जायेगी’– इस प्रयोग को लेकर सर्वसहमति नहीँ बन पायी थी, जिसका मुख्य कारण दीर्घकाल से ‘जन्मदिन/जन्मतिथि’ के अर्थ मे ‘जयन्ती’ का प्रयोग कर उसे रूढ़ रूप देना रहा है।
लगभग डेढ़ घण्टे तक आयोजित कर्मशाला मे दैनिक जागरण-परिवार के उपस्थित समस्त सदस्यवृन्द अति अनुशासित रहे तथा सबके चेहरे पर बहुत-कुछ जान और समझ लेने का भाव सुस्पष्ट लक्षित हो रहा था, जो उस कर्मशाला की सार्थकता को रेखांकित कर रहा था। कुल मिलाकर, अति उत्साहपूर्ण वातावरण मे अत्युपयोगी ‘पत्रकारीय भाषिक कर्मशाला’ सम्पन्न हो गयी।
यदि कोई यह कहता है कि आजके पत्रकारोँ को भाषा की समझ बिलकुल नहीँ है वा ‘कामचलाऊ’ बोध है तो समानान्तर एक प्रश्न उठ खड़ा होता है– पत्रकार सीखना चाहता है। कभी तथाकथित स्थानीय हिन्दी-प्राध्यापकोँ ने, जिन्हेँ वही पत्रकार अपने समाचारपत्र/समाचारपत्रोँ मे ‘प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य’, ‘प्रकाण्ड विद्वान्’, ‘महान् विदुषी’, ‘प्रख्यात समीक्षक’, ‘भाषाविद्’, ‘भाषाविज्ञानी’, ‘आचार्य’, ‘भाषाविशेषज्ञ’ इत्यादिक उपाधियोँ से विभूषित करते आ रहे हैँ, इस दिशा मे अपनी ओर से एक ‘सामान्य’ पहल भी की है? प्रतिमाह लाखोँ रुपये कमाते हैँ; पढ़ाने के नाम पर शिक्षण-संस्थानो के साथ आँखमिचौली/आँखमिचौनी का खेल खेलते आ रहे हैँ। उनमे से भी जो स्वयं को कर्त्तव्यनिष्ठ मानते हैँ, उन्होँने कभी सोचा– जो समाज को सजग करते आ रहे हैँ, उन्हेँ अंशकालिक रूप मे ही सही, शुद्ध शब्दप्रयोग की जानकारी दी जाये?
इसी अवसर पर मैने स्थानीय सम्पादक जितेन्द्र शुक्ल जी को स्वयं-द्वारा सम्पादित हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के मुखपत्र ‘राष्ट्रभाषा संदेश’ के ‘हिन्दीभाषा- उत्थान-विशेषांक’ एवं शुद्धाशुद्ध शब्दप्रयोग पर आधारित स्वयं की मौलिक कृति ‘आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला’ प्रदान की थीँ।