तुम्हारे भीतर तक

बेशक,
तुम हो।
तुम्हारे साथ मै नहीँ;
क्योँकि तुम मै-मय हो।
तुम्हारे-मेरे मध्य का मै,
एक अन्तराल-शिला पर बैठा,
कुचक्र रच रहा है।
तुम और मै मिल-बैठ,
उस अन्तराल को पी रहे हैँ–
भीतर तक।
आँखेँ–
पलकोँ पर प्रश्नो को सँभाले,
तुमसे तुम्हारे मै को
खंगालने के प्रयत्न मे,
धँसती आ रही हैँ–
भीतर तक।
तुम्हारा मै,
उद्धत, धृष्ट, स्वच्छन्द बन
आतुर है, तुम्हारे ‘तुम’ को,
बिगड़ैल बनाने मे–
भीतर तक।
तुम को इतना पारदर्शी मत बनाओ;
विषाक्त हवा बेचैन है,
चलने को;
तुम्हारे भीतर तक।
तुम्हारी प्रज्ञा, धी तथा अन्तर्दृष्टि
क्योँ अशक्त और निश्शक्त हैँ?
जबकि तुम्हारी मेधा स्वयं से
सशंकित अनुभव कराती है–
भीतर तक।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, १७ अगस्त, २०२४ ईसवी।)