
◆ आप इस विषय से सम्बन्धित किसी प्रकार के भ्रम को दूर करने वा शंका का समाधान करने के लिए मुक्त भाव से प्रश्न-प्रतिप्रश्न कर सकते हैँ। यदि आपको लगता हो कि हमने किसी अशुद्ध वा अनुपयुक्त शब्द का व्यवहार किया हो तो प्रश्न करेँ, स्वागत है।
अध: मुद्रित वाक्य को शुद्ध करेँ–
◆ शंंकराचार्य, आदिजगत गुरू एक दाशर्निक थे।
सकारण शब्दविश्लेषण एवं शुद्ध उत्तर–
उपर्युक्त वाक्य पूर्णत: अशुद्ध है। हमे दीर्घकाल से अशुद्ध और अनुपयुक्त पढ़ाया, समझाया तथा बताया जा रहा है; परन्तु हम विवेकवान् कहलाने के बाद भी अपने विवेकद्वार को अवरुद्ध कर रखे हैँ, जिसके कारण उचित-अनुचित का भान करने मे समर्थ नहीँ रहते। आश्चर्य तो यह है कि हम समस्तरीय शब्दोँ का शुद्ध व्यवहार करते हैँ; परन्तु उसी से सम्बद्ध शब्दप्रयोग को लेकर व्याकरणीय अनुशासन की जाने-अनजाने (‘अंजाने/अन्जाने’ अशुद्ध है।) अवहेलना करते आ रहे हैँ।
हम यहाँ शब्द-गठन के नियमान्तर्गत एक-एक शब्द पर सकारण विचार करेँगे।
हमारा प्रथम शब्द कर्त्ता है। यदि कर्त्ता किसी व्यक्ति का नाम हो तो वह व्यक्ति अपने नाम का जिस वर्तनी मे व्यवहार करता हो, उसे ही ग्रहण करना होगा; क्योँकि वैसी स्थिति मे व्यक्तिसूचक संज्ञा मे परिवर्तन नहीँ किया जा सकता। हमे कर्त्ता-शब्द को ज्ञात करने के लिए क्रिया मे ‘कौन’ लगाकर प्रश्न करना होगा– ‘कौन थे?’ हमे उत्तर प्राप्त होता है– ‘शंकराचार्य, आदिजगत गुरू’।
यहाँ कर्त्ता-शब्द शंकराचार्य का नाम है। उनका नाम ‘जगद्गुरु आदि शंकराचार्य’ के रूप मे प्रतिष्ठित है, इसलिए हम यहाँ अशुद्ध और अनुपयुक्त नाम की वर्तनी के स्थान पर इस नाम को ही ग्रहण करते हुए, लिखेँगे– जगद्गुरु आदिशंकराचार्य।
हम अब कर्म-शब्द पर विचार करेँगे, जिसके लिए क्रिया मे ‘कहाँ’ वा ‘क्या’ लगाकर प्रश्न करेँगे। यहाँ ‘कहाँ थे?’ से कोई उत्तर प्राप्त नहीँ हो रहा है तो हम ‘क्या’ का व्यवहार करेँगे– ‘क्या थे?’ उत्तर प्राप्त होता है– ‘दार्शिनिक’। हम ‘दार्शिनिक’ की वर्तनी पर विचार करेँगे तो बोध होगा, शब्द अशुद्ध है। हम शुद्ध करते हुए, ‘दार्शनिक’ लिखेँगे। वाक्य गठन की अन्तिम प्रक्रिया ‘क्रिया-निर्धारण’ पर समाप्त होती है। वाक्य की सहायक क्रिया ‘थे’ है, जिसे हम लिखेँगे– ‘थे।’
अब हमारा वाक्य गठित होता है–
◆ जगद्गुरु आदिशंकराचार्य एक दार्शनिक थे।
जब हम इस वाक्य पर गम्भीर रूप से दृष्टिनिक्षेपण करते हैँ तब ज्ञात होता है कि गठित वाक्य अब भी शुद्ध नहीँ है। इसका कारण है, बिना विचार किये भाषिक परम्परा को ढोते रहना।
यहाँ ‘दार्शनिक’ का प्रयोग शुद्ध नहीँ है। हमे ‘संज्ञा’ का प्रयोग करना है; परन्तु हम ‘विशेषण’ का प्रयोग कर रहे हैँ। ‘दार्शनिक’ विशेषण-शब्द है, जैसे– वैज्ञानिक।
आप इसे ऐसे समझेँ। हम साहित्य, समाज, विज्ञान, अध्यात्म, संस्कृति, इतिहास, भूगोल इत्यादिक शब्दोँ का प्रयोग करते हैँ, जोकि संज्ञाशब्द हैँ। इनके क्रमश: विशेषण हैँ :– साहित्यिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक इत्यादिक।
हम किसी ‘समाजशास्त्री’ को ‘सामाजिक’, ‘साहित्यकार’ को ‘साहित्यिक’, ‘विज्ञानविद्’ को ‘वैज्ञानिक’, ‘अध्यात्मवादी’ को ‘आध्यात्मिक’, ‘संस्कृतिवेत्ता’ को ‘सांस्कृतिक’, ‘इतिहासकार’ को ‘ऐतिहासिक’ तथा ‘भूगोलविद्’ को ‘भौगोलिक’ कहेँगे तो क्या हमारे इन प्रयोग (‘प्रयोगों’ अशुद्ध है।) को शुद्ध और उपयुक्त कहा जायेगा? कदापि नहीँ। दोनो शब्दोँ के पृथक्-पृथक् प्रयोग हैँ। उसी तरह से हमारे मूल शब्द मे व्यवहृत ‘दार्शिनिक’ का शुद्ध शब्द ‘दार्शनिक’ का प्रयोग भी अशुद्ध कहलायेगा।
हम अब ‘दार्शनिक’ शब्द-प्रयोग को व्याकरणिक नियम के आलोक मे परखेँगे।
मूल शब्द ‘दर्शन’ है, जोकि ‘देखना’ के अर्थ मे ‘दृश्’ धातु का शब्द है। जैसे ही ‘दृश्’ धातु मे ‘ल्युट्’ प्रत्यय जुड़ता है वैसे ही ‘दर्शन’ शब्द की व्युत्पत्ति होती है। देखने की क्रिया वा भाव ‘दर्शन’ है। “दृश्यते अनेन इति दर्शनम्।” इसकी परिभाषा है– जिसके द्वारा देखा जाये, वह ‘दर्शन’ है।
हम अब ‘दार्शनिक’ को समझेँगे। ‘दार्शनिक’ विशेषण-शब्द है। ‘दर्शन’ मे ‘ठञ्’ प्रत्यय का योग होते ही, ‘दार्शनिक’ शब्द का सर्जन (‘सृजन’ अशुद्ध है।) होता है, जिसका अर्थ है, ‘दर्शन से सम्बन्धित’ वा ‘दर्शनशास्त्र से सम्बन्धित’।
उपर्युक्त मीमांसा के आधार पर हम दर्शन-विषय के ज्ञाता को ‘दार्शनिक’ कदापि नहीँ कहेँगे। दार्शनिक एक क्षेत्र, कर्म, विचार, भाव, क्रिया इत्यादिक है; जैसे– साहित्यिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक इत्यादिक क्षेत्र, कर्म, विचार, क्रिया, भाव इत्यादिक हैँ।
ऐसे मे, प्रश्न उठता है– यहाँ ‘दार्शनिक’ के स्थान पर किस शब्द का व्यवहार होगा? उत्तर सुस्पष्ट है– आप दर्शनकार, दर्शनवेत्ता, दर्शनशास्त्री, दर्शनविद् इत्यादिक शब्दोँ मे से किसी का भी व्यवहार कर सकते हैँ।
हमारा शुद्ध वाक्य है–
◆ जगद्गुरु आदिशंकराचार्य एक दर्शनशास्त्री/दर्शनकार/दर्शनविद्/दर्शनवेत्ता थे।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १८ मार्च, २०२५ ईसवी।)