आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला

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निम्नलिखित अशुद्ध वाक्य को कारण-सहित विशद (स्पष्ट) रूप में शुद्ध करें।
अशुद्ध वाक्य है– प्राधानाचार्या महोदय! आपके दर्शनों को पाकर मैं अभिभूति हूँ।
अब इस वाक्य की अशुद्धियों को विस्तारपूर्वक समझते हुए, इसके शुद्ध रूप को ग्रहण करें।

इस वाक्य में ‘नौ प्रकार’ की अशुद्धियाँ हैं :–

पहली, वर्तनीगत (शुद्ध शब्द ‘प्रधानाचार्या’ है। यहाँ ‘प्रा’ के स्थान पर ‘प्र’ होगा।)।

दूसरी अशुद्धि लिंग-विषयक (शुद्ध शब्द ‘प्रधानाचार्या’ है।

तीसरी अशुद्धि ‘पदनाम-विषयक’ है। पदनाम सदैव ‘पुंल्लिंग’ (‘पुल्लिंग’ अशुद्ध है।) में प्रयुक्त होता है, इसलिए यदि कोई महिला अपने लिए ‘प्रधानाचार्य’ अथवा ‘प्राचार्य’ का स्त्रीलिंग ‘प्रधानाचार्या’ अथवा ‘प्राचार्या’ का व्यवहार करती है तो वह अनुपयुक्त सिद्ध होता है।

चौथी अशुद्धि– लिंग-विषयक (महिला प्रधानाचार्य के लिए ‘महोदय’ (पुंल्लिंग) से ‘महोदया’ (स्त्रीलिंग) की रचना होती है; ‘महोदया’ पदनाम नहीं, ‘आदरबोधक’ शब्द है। यहाँ इस प्रकार ‘कर्त्ता’ की रचना होती है– प्रधानाचार्य महोदया। चूँकि यहाँ इस कर्त्ता में सम्बोधन कारक है अत: ‘महोदया’ के आगे सम्बोधन-चिह्न (सम्बोधन ‘का’ चिह्न) प्रयुक्त होगा। ‘महोदया!’ इस प्रकार होगा– प्रधानाचार्य महोदया! ।

पाँचवीं अशुद्धि– सर्वनाम-विषयक। ‘आपके’ स्थान पर ‘आपका’ होगा; क्योंकि उसके आगे ‘दर्शन’ शब्द है। एक बार में ‘एक साथ’ किसी ‘एक ही’ का दर्शन होता है। ‘दर्शन होता है।’ यह वाक्य शुद्ध है, न कि ‘दर्शन’ होते हैं।’ इस वाक्य के भाव में प्रसन्नता की अभिव्यक्ति हो रही है, इसका आशय यह है कि ‘दर्शन’ किया जा चुका है।

छठी अशुद्धि ‘शब्दप्रयोग ‘-विषयक। ‘पाकर’ का प्रयोग तब होता है जब वह प्रकट होता है, इसलिए ‘पाकर’ के स्थान पर ‘करके’ होगा। इस प्रकार शुद्ध वाक्य है– ‘आपका दर्शन करके’।

सातवीं अशुद्धि शब्दगरिमा- विषयक। अब यहाँ यह विचारणीय है– क्या दर्शन ‘प्रधानाचार्य-जैसे’ सामान्य मनुष्य के लिए प्रयुक्त होगा? उत्तर है– नहीं। ऐसा इसलिए कि दर्शन ‘ईश्वरीय शक्ति’ अथवा ‘सिद्ध पुरुष’ का किया जाता है, जो कि दुष्प्राप्य (दुर्लभ) है। यहाँ पर ‘दर्शन’ के स्थान पर ‘भेंट करके’ अथवा ‘मिलकरके अथवा ‘मुलाक़ात करके’ होगा। अब वाक्यांश की रचना होती है– आपसे भेंटकरके मिलकरके/मुलाक़ात करके।

आठवीं अशुद्धि ‘कर्त्ता-विषयक’। ‘मैं’ के साथ जब ‘हूँ’ का प्रयोग होता है तब यह सुस्पष्ट रहता है कि ‘हूँ’ क्रिया सदैव ‘मैं’ के साथ ही व्यवहृत होती है, इसलिए यहाँ ‘मैं’-प्रयोग का कोई औचित्य नहीं है। उदाहरण के लिए– ठहरिए! अभी (मैं) आता हूँ। यहाँ ‘मैं’ वाक्य में है ही; प्रयोग न करें तो ‘वाक्य-सौन्दर्य’ बना रहेगा।

नौवीं (‘नवीं’ अशुद्ध है।) अशुद्धि ‘क्रिया-विषयक’। उक्त वाक्य की क्रिया ‘अभिभूति हूँ’ दिख रही है, जो कि अशुद्ध है; क्योंकि ‘अभिभूति’, ‘किंकर्त्तव्यविमूढ़’ अथवा ‘व्याकुल’ अथवा ‘पराजित’ होने की क्रिया अथवा भाव है, जो कि ‘भू’ (होना) धातु का शब्द है। इस धातु के पूर्व में ‘अभि’ उपसर्ग लगा है। इस धातु के अन्त में ‘क्तिन्’ प्रत्यय का योग है, जिससे ‘अभिभूति’ की उत्पत्ति होती है। अब हम ‘अभिभूत’ पर विचार करते हैं। जिसका ‘तिरस्कार’ (‘तिरष्कार’ अशुद्ध शब्द है।) हुआ हो; जो ‘किंकर्त्तव्यविमूढ़’ हो; जो ‘पराजित’/’व्याकुल’ हो, वह ‘अभिभूत’ है। अब इसके सर्जनपक्ष को भी समझें। यह भी ‘भू’ धातु का शब्द है और पूर्व में ‘अभि’ उपसर्ग का ही जुड़ाव है, जबकि प्रत्यय भिन्न है। यहाँ ‘क्त्’ प्रत्यय का योग है।

आश्चर्य है! देश के पढ़े-लिखे विद्वान्, भाषाविद्, वैयाकरण, प्राध्यापक, राजभाषाधिकारी आदिक ‘अभिभूत’ के अर्थ और भाव ‘प्रसन्नतासूचक’ और ‘कृतज्ञताबोधक’ के रूप में व्यवहार करते आ रहे हैं। यहाँ उन सभी का ‘उन्मीलन’ करना (आँखें खोलना) अपना ‘परम धर्म’ (‘परम्’ अशुद्ध है।) समझता हूँ। ‘धर्म’ का अर्थ ‘कर्त्तव्य’ है। यहाँ वाक्य के स्वभाव को समझते हुए, ‘अभिभूति हूँ’ के स्थान पर ‘प्रसन्न हूँ’ होगा।

इतनी व्याकरणिक और भाषावैज्ञानिक प्रक्रियाओं का विश्लेषण करने के बाद उपर्युक्त अशुद्ध वाक्य का शुद्ध रूप निम्नलिखित है :–
◆ प्रधानाचार्य महोदया! आपसे भेंटकरके/ मिलकरके/मुलाक़ात करके प्रसन्न/अति प्रसन्न हूँ/प्रसन्नता /अति प्रसन्नता हो रही है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १७ जून, २०२१ ईसवी।)